कहते हैं
वक्त हर जख्म को भर देता है, लेकिन जख्म के चिह्न को वक्त मिटा नहीं पाता, धुंधला
अवश्य कर देता है। भारतीय लोकतंत्र में आपातकाल का व्रणचिह्न, एक ऐसा ही चिह्न है।
आज से ठीक 38 वर्ष पूर्व देश पर 25 जून, 1975 की मध्य रात्रि को अलोकतांत्रिक
आपातकाल थोपा गया था। लोकतंत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि लोकतंत्र 100 वर्षों
में परिपक्व होता है।
मंगलवार, 25 जून 2013
आपातकालीन दमन के अमिट व्रणचिह्न(घाव के निशान) Emergency Suppression Indelible Scar
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रविवार, 23 जून 2013
क्या भारत ही साम्प्रदायिक है?
आज-कल की राजनीति में कमजोर, दबे-पिछड़े, हताश, सिद्धांतविहीन राजनेता वोटबैंक की राजनीति को जिंदा बनाए रखने के लिए नित नए-नए हथकंडे अपनाकर समाज में वितंडा खड़ा करते रहते हैं। जिसे जब कमजोरी महसूस होती है, वह साम्प्रदायिकता, साम्प्रदायिकता की रट लगाकर, लोगों को बरगलाकर अपने को मजबूत करने का प्रयत्न करता रहता है। चाहे युवराज राहुल हों या नीतीश, लालू, मुलायम, ममता हों। संविधान सभा ने 26 जनवरी 1950 को संविधान को अंगीकृत किया था, लेकिन उसमें सेक्युलर या उसके हिन्दी पर्याय पंथनिरपेक्ष (सामान्य अर्थ में धर्मनिरपेक्ष) का जिक्र नहीं किया गया था।
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