रविवार, 23 जून 2013

क्या भारत ही साम्प्रदायिक है?

आज-कल की राजनीति में कमजोर, दबे-पिछड़े, हताश, सिद्धांतविहीन राजनेता वोटबैंक की राजनीति को जिंदा बनाए रखने के लिए नित नए-नए हथकंडे अपनाकर समाज में वितंडा खड़ा करते रहते हैं। जिसे जब कमजोरी महसूस होती है, वह साम्प्रदायिकता, साम्प्रदायिकता की रट लगाकर, लोगों को बरगलाकर अपने को मजबूत करने का प्रयत्न करता रहता है। चाहे युवराज राहुल हों या नीतीश, लालू, मुलायम, ममता हों। संविधान सभा ने 26 जनवरी 1950 को संविधान को अंगीकृत किया था, लेकिन उसमें सेक्युलर या उसके हिन्दी पर्याय पंथनिरपेक्ष (सामान्य अर्थ में धर्मनिरपेक्ष) का जिक्र नहीं किया गया था।


वरिष्ठ स्तंभकार कुलदीप कुमार ने लिखा है कि अल्पसंख्यक होने के कारण किसी समुदाय की सांप्रदायिकता कम खतरनाक नहीं हो जाती, खासकर तब जब उस समुदाय और उसके नेताओं की जातीय चेतना देश के पूर्व शासक होने और एक प्रभावशाली वैश्विक उम्माह का अभिन्न अंग होने की हो, और जो न केवल अपने धर्म को सर्वश्रेष्ट मानता हो, बल्कि अन्य धर्मों और उसके अनुयायियों पर उसका वर्चस्व स्थापित करने को अपना पवित्र धार्मिक कर्तव्य भी समझता हो।




आज एक बार फिर इस सचाई को रेखांकित करने की जरूरत है कि सांप्रदायिकता का रंग कोई भी हो, वह देश के लिए समान रूप से घातक है, क्योंकि वह हमारे समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करती है, एकता को नष्ट और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करती है। भगवा ब्रिगेड हो या हरा ब्रिगेड, दोनों का समान रूप से डट कर मुकाबला किया जाना चाहिए। अब उस नेहरूवादी सोच का जमाना लद गया है, जो अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को बहुसंख्यक सांप्रदायिकता से कम खतरनाक मानती थी।




धृति: क्षमा दमो Sस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। - मनुस्मृति
धैर्य, क्षमा, दम, चोरी न करना, शुचिता, इंद्रिय-संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध – ये दस धर्म के लक्षण हैं।

शास्त्रों में धर्म का ही अधिक उल्लेख है, पंथ का किंचित ही उल्लेख है। नाजायज-अलोकतांत्रिक आपातकाल की कोख से जन्मे नाजायज धर्मनिरपेक्षता ने भारतीय राजनीति को धैर्य, क्षमा, दम, चोरी न करना, शुचिता, इंद्रिय-संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध जैसे गुणों से रहित कर दिया। धर्मनिरपेक्षता (धर्महीन) के और अर्थ हैं सही, नीति, न्याय, तर्क, प्रमाण, सत्य और जो भी इस सृष्टि-जगत में सकारात्मक है उससे हीन करना। लेकिन इसके लिए जितना जिम्मेदार थोक मुस्लिम वोटबैंक है; उससे कहीं अधिक जिम्मेदार जातियों में बंटे हुए हिंदुओं का भी है। जाति के आधार अक्षुण्ण वोटबैंक भारतीय लोकतंत्र को दीमक की तरह चाटकर अंदर से खोखला कर रहा है।

 


गौरवशाली भारतीय लोकतंत्र की जब 1975 में हत्या करने का प्रयास किया गया था, उस समय इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द को शामिल किया था। कालांतर में जनता पार्टी सरकार या धर्मनिरपेक्ष राजनीति में हमेशा निशाने पर रहने वाली भाजपा ने वाजपेयी सरकार के समय में भी इसे संविधान से निकालने का कोई प्रयास नहीं किया। वैसे भारत में जनता पार्टी सरकार में जनसंघ और कम्युनिस्ट दोनों पार्टियां साथ-साथ थीं।




वैसे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि 1984 के दु:खद सिख विरोधी दंगों को भुला दिया जाना चाहिए। लेकिन राजनीतिक मजबूरी के नाते यही बात वह गुजरात दंगों के बारे में नहीं कह सकते। इसी राजनीतिक मजबूरी से अधिकतर नेता सेक्युलरिज्म के स्वयंभू ठेकेदार बनने की असीम ऊर्जा प्राप्त कर लेते हैं।




बौद्धिक दरिद्रता से आप्लावित होकर कांग्रेस गुजरात राज्य और राज्य के नागरिकों से पाकिस्तानी स्टेट और पाकिस्तानी नागरिक जैसा व्यवहार करते हुए हमेशा लांछित करके अपशब्द कहती रहती है। यही मोदी को गुजरात में लगातार जीतते जाने का सबसे मजबूत आधार प्रदान करती है।




जब तक गुजराती नागरिकों को कांग्रेस लांछित करके अपशब्द कहती रहेगी, तब तक ये नागरिक कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। राजनीतिक पार्टियों को यह मानना-समझना ही पड़ेगा कि देश में विकास, शिक्षा, रोजगार, समानता, स्वतंत्रता आदि खतरे में है, लेकिन सेक्युलरिज्म को कोई खतरा नहीं है। सबसे बड़ा खतरा उस राजनीति, लोकतंत्र और राष्ट्रहित को है, जो सभी राजनीतिक दलों के एजेंडा और प्राथमिकता सूची से दशकों से पूरी तरह गायब है।




21 जुलाई 2012 को भाषा के हवाले से यह खबर आई थी कि स्वदेश निर्मित स्टील्थ (रडार की जद में नहीं आने वाले) युद्धपोत आईएनएस सह्याद्रि को शनिवार को भारतीय नौसेना में शामिल कर लिया गया। इसका नाम सह्याद्रि की जगह गोरी, गजनी, बाबर क्यों नहीं हुआ क्योंकि इसका नामकरण राष्ट्रत्व के आधार पर किया गया है। यहां छद्म साम्प्रदायिकता अपना स्पेस नहीं बना सकी। भारत में सैन्य सामानों के नाम सभी धर्मों से जुड़े हुए नहीं रखे जाते।




सर्वोच्च न्यायालय का motto है यतो धर्मस्ततो जय: एंटी एअरक्राफ्ट मिसाइल सिस्टम चलाने वाली सेना की टुकड़ी का युद्ध घोष है। स्वामी शरणं अयप्पा। राजपूताना राइफल्स का युद्धघोष है - बजरंग बली की जै। सिख रेजीमेंट का युद्धघोष है – देग तेग फतेह। पुलिस का है, सद् रक्षणाय, खल निग्रहणाय। भारत सरकार का ध्येय वाक्य है, सत्यमेव जयते। भारतीय जीवन बीमा निगम का ध्येय वाक्य है योगक्षेमं वहाम्यम्।इन सभी ध्येय वाक्यों में एक धर्म विशेष से जुड़े कथन ही लिए गए हैं। क्या इस आधार पर भारत पर यह आक्षेप लगाया जा सकता है कि भारत साम्प्रदायिक देश है? यदि नहीं, तो फिर यही बात भारत के जीवन और समाज के सभी क्षेत्रों में लागू होती है।




संविधान की मूल हस्त लिखित प्रति में राम, कृष्ण के चित्र बने हुए हैं। फिर भी बौद्धिक मालिन्य के चितेरे उन्हें काल्पनिक कहते हैं। यह उल्लेखनीय है कि जो चित्र पूजा में विश्वास नहीं रखते हैं, उनके निराकार ईश्वर का चित्र संविधान में नहीं बनाया जा सकता, तो संविधान पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाना हास्यास्पद ही कहा जाएगा। नरेंद्र मोदी ने अपने गूगल + हैंगआउट कार्यक्रम में एक ब्रिटानी के पूछने पर बताया कि इंडिया इज फर्स्ट ही सेक्युलरिज्म है।




यदि धर्म विशेष कहता है कि मेरे जीवन में बीबियां तो 4 हो सकती हैं, लेकिन ईश्वर केवल एक ही होगा। दूसरे की कल्पना करने वाले को अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना होगा। सवाल यह है कि यदि जीवन में रंग, भोजन, मौसम, वस्त्र, त्यौहार, किसी एक विषय पर अनेक विद्वान और पुस्तकें तथा विचार हो सकते हैं, तो इन सबसे कहीं अधिक उत्कृष्ठ ईश्वर दो क्यों नहीं हो सकता।




धर्मनिरपेक्षता यह है कि मैं ही नहीं, तू भी ठीक है। केवल मैं ही ठीक हूं, मेरा ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ है, यह साम्प्रदायिकता है। लेकिन नीतिश के कथन का तथाकथित मन्तव्य यह है कि नरेंद्र मोदी साम्प्रदायिक हैं और मैं धर्मनिरपेक्ष हूं। जिन थोक मुस्लिम वोटबैंक के लिए नीतिश यह कह रहे हैं, वो पहले कांग्रेस का था। फिर लालू ने मुस्लिम + यादव (M+Y) समीकरण बनाया और लंबे समय तक बिहार पर राज किया। जब मुस्लिम वोटबैंक इन दोनों का नहीं रहा तो, नीतिश कुमार का कब तक रहेगा? यह बेवफा वोटबैंक कब अपना अगला आशिक राजनीतिक दल ढ़ूंढ़ लें क्या भरोसा?



देश के तथाकथित निर्माता पं. नेहरू ने भारत के निर्माण का बीज बोते समय उसमें कई नासूर-ए-जख्म-बीज भी बोए थे, जिसमें से प्रमुख है, बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता से अधिक खतरनाक होती है। जबकि संविधान सभा की बहस में आरक्षण-बहस का जवाब देते हुए सरदार पटेल ने मुस्लिम तुष्टिकरण पर चेताते हुए कहा था कि, “जिन लोगों के दिमाग में लीग (मुस्लिम लीग) का ख्याल बाकी है कि एक मांग (देश विभाजन) पूरी करवा ली तो पुन: उसी योजना पर चलना है...मेहरबानी करके अतीत भूल जाइए। अगर ऐसा असंभव है तो आपके विचार में जो सर्वोत्तम स्थान (देश) है, आप वहां चले जाइए। अल्पमत का भविष्य इसी में है कि वह बहुमत का विश्वास करे। जो अल्पमत देश का विभाजन करवा सकता है, वह हरगिज अल्पमत नहीं हो सकता।



देश का यह दुर्भाग्य अनिवर्णनीय है कि देश बांटने के लिए हुए संघर्ष में लाखों लोग मारे गए। यदि सत्तालिप्सा में नेता डायरेक्ट एक्शन के आगे नहीं झुकते तो इससे कम लोग मारे जाते, और देश अटूट रहता। सूर्य अस्त न होने वाले विश्व के सबसे शक्तिशाली ब्रिटेन को भारत छोड़कर जाने पर मजबूर करने वाले सृष्टि के अलौकिक महान महात्मा गांधी के सत्य अहिंसा के सिद्धांत-दर्शन ने मुट्ठी भर मुसलमानों के उस डायरेक्ट एक्शन के आगे प्राण-भिक्षा मांगते हुए समर्पण क्यों कर दिया, जिनके पास अंग्रेजों जैसी तोपें और बंदूकें तक नहीं थीं? गृहयुद्ध की आशंका मात्र से बचने के लिए देश का विभाजन स्वीकार कर लिया गया। कितनी हास्यास्पद विडम्बना है कि बंटवारे के पहले दंगों में हजारों और बाद में तो लाखों लोग मरे, लेकिन राष्ट्र का बंटवारा न हो, इसके लिए कोई नहीं मरा।

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