मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

भू-अधिग्रहण से जीवन-स्तर में वृद्धि हो

कुन्दन पाण्डेय

भू-अधिग्रहण नीति से भूस्वामी के परिवार के जीवन-स्तर में वृद्धि अवश्य होनी चाहिए, अन्यथा वह खुशी से अधिग्रहण के लिए कभी भी तैयार नहीं होगा। सारी जमीन पर राज्य के स्वामित्व वाले एमिनेंट डोमेन के सिद्धांत से यदि भूस्वामी के जीवन-स्तर पर नकारात्मक असर पड़े तो यह राज्य के लोकहित का निर्णय कभी नहीं कहा जा सकता।

बुधवार, 28 सितंबर 2011

क्यों टूटा अमेरिका का गुरूर?

कुन्दन पाण्डेय

95 वर्षों के बाद शीर्ष वैश्विक क्रेडिट रेटिंग संस्था ‘स्टैंडर्ड एण्ड पुअर’ (एस एण्ड पी) ने अमेरिका की क्रेडिट (साख) रेटिंग ‘एएए’ से घटाकर ‘एए प्लस’ करके अमेरिकी गुरूर को तोड़ दिया। परन्तु इसका जिम्मेदार अमेरिका ही ज्यादा है, एस एण्ड पी नहीं। वैश्विक कर्ज बाजार में सोने से अधिक विश्वसनीय डॉलर पर अब निवेशकों का पहले जैसा विश्वास तो नहीं रहेगा। इससे अमेरिका को निवेश या कर्ज पाने के लिए पहले से अधिक मूल्य देना होगा। साथ ही डॉलर का मूल्य गिरने से उसकी लिवाली कम होती जाएगी। ठीक ही कहा गया है कि अहंकार सर्वनाश का मूल है।

रविवार, 25 सितंबर 2011

वृद्धाश्रम, श्राद्ध की संस्कृति को मरणामंत्रण


श्राद्ध का अर्थ होता है, श्रद्धा से जो कुछ दिया जाय। किन्तु आज-कल श्राद्ध का अर्थ है पितरों के उद्देश्य से पिण्डदानादि की क्रिया। अपने भारतीय पंचांग के आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिप्रदा से अमावस्या तक के दिनों को ‘पितृपक्ष या महालय पक्ष’ कहते हैं। इस समय में अपने पूर्वजों-पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध किया जाता है। अब भारतीय प्रगतिशील बनने के लिए धर्म से निरपेक्ष होते जा रहे हैं, इसलिए वें इसे व्यर्थ का कार्य समझ कर नहीं करते हैं। लेकिन धर्म को जानने वाले भारतीयों को पता है कि श्राद्ध से पूर्वजों-पितरों व सगे-संबंधियों को ही नहीं वरन् प्राणि मात्र को संतृप्ति की प्राप्ति होती है।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

भ्रष्टाचार व लोकपाल के भंवर में फंसा भारतीय लोकतंत्र


अन्ना के आन्दोलन से एक बात देश का हर नागरिक स्पष्ट रूप से जान गया कि भारतीय संविधान में प्रधानमंत्री एक ऐसा अघोषित पद बना दिया गया है कि उस (पीएम) पर, पद पर बने रहते आरोप लगाया जा सकता है, उंगली उठाई जा सकती है, परन्तु जांच नहीं की जा सकती। जन-जन को लोकपाल से परिचित कराने के लिए अण्णा को कोटि-कोटि साधुवाद। एक ईमानदार व सच्चे इंसान (पीएम मनमोहन सिंह) की जांच से लोकतंत्र के अस्थिर होने की बात गले के नीचे नहीं उतरती।


मंगलवार, 23 अगस्त 2011

जनलोकपाल आन्दोलन के आगे क्या?


जो इतिहास से सबक नहीं लेता, उसे इतिहास दुहराना पड़ता है। अन्ना के आन्दोलन पर जेपी आन्दोलन के हश्र से सबक नहीं लेने पर उसके दुहराव की प्रबल आशंका है। आखिर अन्ना खुद तो लोकपाल (राष्ट्रीय) बनेंगे नहीं, न ही उनके जैसे उदात्त व्यक्तित्व के आदमी के ही लोकपाल बनने की गारंटी कोई (व्यक्ति या तंत्र) लेगा। 


गांधी ने देश को आजाद कराया, जेपी ने इंदिरा के कुशासन से। लेकिन दोनों ने ही अपने सपनों को व्यावहारिक रुप से लागू करने के लिए खुद देश की बागडोर नहीं संभाली। अमेरिका की आजादी की लड़ाई जॉर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में लड़ी गई और वे ही इसके पहले राष्ट्रपति बने, लेकिन अपने देश में गांधी ने ऐसा नहीं किया। अपने देश के सड़े हुए तंत्र के बारे में स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई मौकों पर कह चुके हैं। फिर ऐसे सड़े हुए तंत्र से ईमानदार नौकरशाह के जनता के नौकर बनकर काम करने की संभावना न के बराबर प्रतीत हो रही है।

बुधवार, 17 अगस्त 2011

क्या गांधी को भी अनशन करने से रोकती सरकार?


यदि महात्मा गांधी जिंदा होते और कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन करते, तो क्या सरकार उनके साथ भी ऐसा ही करती जैसा अण्णा हजारे के साथ किया गया। बेशक कर सकती थी क्योंकि यह कांग्रेस लाल, बाल, पाल, गांधी, सरदार पटेल या गोविन्द वल्लभ पंत की कांग्रेस नहीं है, बल्कि नेहरु खानदान की जागीर है। यदि आज भ्रष्टाचार के खिलाफ लाल, बाल, पाल, गांधी, सरदार पटेल या गोविन्द वल्लभ पंत जैसे कांग्रेसी भी अनशन करने की जुर्रत करते तो सरकार उनसे अंग्रेज सरकार से भी बदतर तरीके से निपटती।

गुरुवार, 16 जून 2011

स्वनाश को आतुर भयग्रस्त यूपीए सरकार

संघ और अक्षम भाजपा से फोबियाग्रस्त केन्द्र की यूपीए सरकार को जनता बदलना चाहती है। लेकिन उसके पास विकल्प का घोर अभाव होना लोकतंत्र की पतली हालत का द्योतक है क्योंकि जनता को विपक्ष और सरकार में कोई अंतर नहीं दिखता। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सरकार ने गहन रात्रि में सोते लोगों पर लाठीचार्ज कराके जलियावाला बाग हत्याकांड को एक मायने में पीछे छोड़ दिया है क्योंकि हत्याकांड जागते लोगों पर हुआ था और रामलीला मैदान में लाठीचार्ज सोते हुए लोगों पर यह कह कर किया गया है कि यहां अनुमति की निर्धारित संख्या से अधिक लोग है। निर्धारित संख्या से अधिक का जब पहला व्यक्ति आया, तभी उसको सरकार या पुलिस ने बाहर क्यों नहीं रोका।

रविवार, 5 जून 2011

आर्थिक विकास मॉडल बदलने से बचेगा पर्यावरण


दुनिया भर के मानव सम्मिलित रुप से एक वर्ष में करीब 8 अरब मीट्रिक टन कार्बन पर्यावरण में उत्सर्जित करते हैं, जबकि बदले में पर्यावरण का पारिस्थितिकी तंत्र, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की ताजा रिपोर्ट के अनुसार विश्व मानवता को लगभग 3258 खरब रुपये से भी कही अधिक मूल्य की सेवाएं प्रदान करता है। कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि मानव सभ्यता के कांटों के सौगात के बदले, प्रकृति अब भी मानव को फूलों का गुलदस्ता बिना रुके, बिना थके भेंट करती जा रही हैं। क्या सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव, पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचाकर सृष्टि की सबसे विकृत कृति बनता जा रहा है? मानव तो नहीं, लेकिन मानव द्वारा अंगीकृत आर्थिक विकास मॉडल जरूर विकृत है।

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

भ्रष्टशिष्ट समाज के शासक या प्रधानमंत्री पर लांछन क्यों?

भ्रष्टशिष्ट तंत्र का कारण समाज

संदर्भ: अन्ना हजारे का आमरण अनशन

                                कुन्दन पाण्डेय

भारत का संसदीय लोकतंत्र चुनावों पर आधारित है, चुनावों को यदि श्वशन तंत्र माना जाय तो मत या वोट उसका ऑक्सीजन है। चुनाव रुपी श्वशन तंत्र लोकतंत्र के लिए अत्यधिक महँगा हो चुका है। यहीं से भ्रष्टाचार की शुरुआत मानी जा सकती है। ऑक्सीजन रुपी मतदाता के मत के जाति, धर्म, क्षेत्र, लोभ आदि के आधार पर बँटा होना भ्रष्टाचार रुपी आग में घी का काम कर रहा है। इस बार चुनाव आयोग ने सभी प्रत्याशियों को अपने समस्त चुनाव खर्च एक नये बैंक खाते खोलकर करना अनिवार्य कर दिया है।


लोकतंत्र को भ्रष्टाचार रूपी दुष्चक्र ने वर्तमान समय में ऐसे जकड़ रखा है जैसे कि वह कोई असाध्य रोग है। भ्रष्टाचार वर्तमान में न केवल असाध्य रोग प्रतीत हो रहा है बल्कि यह सबसे अधिक संक्रामक रोग हो गया है। भ्रष्टाचार सबसे आकर्षक वायरस है, जिसे अधिकतर व्यक्ति खुशी-खुशी पाने के लिए मर-मिटने (नेता-नौकरशाह बनने) को तत्पर रहते हैं।


भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए समाज-कानून में कहीं भी रंचमात्र की प्रेरणा दिखाई नहीं देती। जब देश में तेल माफिया इतने शक्तिशाली होंगे कि वे उप जिलाधिकारी स्तर के अधिकारी को तेल ड़ालकर जिंदा जला कर मार सके तो भारत का कौन अधिकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा पायेगा। खुद को जान का खतरा होने पर तथा परिवार और बच्चों की जान की कीमत पर शायद ही अधिकतर नौकरशाह कार्रवाई करने को तैयार हो।


ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल नामक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ के नवीनतम भ्रष्ट देशों की सूची में भारत 87 वें स्थान पर है अर्थात 86 देश भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत से अधिक कड़ी कार्रवाई करते हैं, अमेरिका की एफबीआई तो बिना किसी की अनुमति लिए गवर्नर तक के खिलाफ सीधे कार्रवाई करने में सक्षम है। 


कितनी स्तब्ध करने वाली बात है कि घोटाले या भ्रष्टाचार का आरोप सिद्ध होने के बाद भी संबंधित व्यक्ति की काली सम्पत्ती को जब्त करने का कोई कानून कोई भी राजनीतिक दल नहीं बनने देना चाहता। लेकिन, भारत में राजनेता और नौकरशाह सीबीआई को एफबीआई इतना शक्तिशाली बनना शायद ही बर्दाश्त करे।


संसद मनमोहन सिंह द्वारा शुरु किए गए उदारीकरण निजीकरण वैश्वीकरण (एलपीजी) को भ्रष्टाचार को बढ़वा देने वाला तो मानती है। परन्तु संसद भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए उठाये जाने वाले कदमों के बारे में या तो खामोश है या तो टालमटोल करके अपने उत्तरदायित्व से भाग रही है। भ्रष्टाचार निरोधक लोकपाल बिल का सन् 1968 से लंबित रहना इसका ज्वलंत उदाहरण है। 


देश के विशेषाधिकार से विभूषित सांसदों ने अब तक संसद में पेश सभी खानापूर्ति करने वाले विधेयकों को जब पारित नहीं होने दिया गया तो कड़े प्रावधान वाले विधेयक कैसे पारित हो सकते हैं? भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की जगह गठबंधन सरकार की मजबूरियों का रोना रोने वाले प्रधानमंत्री देश की गाँव तक की पंचायतों को मजबूरी के आधार पर क्या-क्या करने की छूट देना चाहते हैं?


भाजपा और विपक्षी दलों द्वारा जेपीसी की मांग का उद्देश्य 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर कार्रवाई कराना नहीं है अपितु मनमोहन सरकार को जनता में इस तरह बदनाम कराना है कि वह अगले आम चुनाव में जनता का मन न मोह सके। जिस बोफोर्स दलाली के जिन्न के आज भी बाहर आने पर सभी विपक्षी दल अपनी राजनीतिक रोटियां आज भी सेंकते हैं, उसकी जेपीसी जांच से किसको सजा हुई?


दिन दूने रात चौगुने की रफ्तार से बढ़ रहे भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए देश को एक और जे पी आन्दोलन की सख्त जरुरत हैं। परन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आज की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिदृश्य वाले समाज में जे पी जैसा कोई व्यक्तित्व हो सकता है? जो मंत्री, प्रधानमंत्री तो बहुत बड़ी बात है, सांसद या विधायक तक न बना हो। लेकिन, इंदिरा गाँधी के खिलाफ आन्दोलन को सफल करने के लिए लाखों लोगों को जोड़ने की क्षमता रखते थे। जबकि 1960 के दशक में इंदिरा गाँधी ने दलबदल विरोधी कानून का मसौदा तैयार करने के लिए जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी। आज के नेता तो एक और समिति के अध्यक्ष बनने की आशा में तुरंत समझौता कर लेंगे। 


ऐसे में अन्ना हजारे जैसे व्यक्तित्व का अनशन एक आशा की किरण बनकर आया है। यदि देश की 121 करोड़ में से केवल 10 प्रतिशत जनसंख्या देश के सभी 640 जिलों में जोरदार तरीके से अनिश्चितकालीन अनशन करे, तो, निश्चित ही केन्द्र सरकार पर बाध्यकारी दबाव बनेगा।



परन्तु असली समस्या राजनैतिक भ्रष्टाचार या काला धन नहीं है बल्कि कोयले से भी अधिक काला हमारा समाज और इस समाज के दो-तिहाई से भी कहीं अधिकतम घर। आज के दौर में सफलता पाने के लिए और कुछ हो या न हो ये 4 चीजें नहीं होनी चाहिए- गैरत, शर्म, जमीर और पीठ में रीढ़ की हड्डी। 


क्या यह कड़वी सच्चाई नहीं है कि आज के समाज में यदि आप भ्रष्टशिष्ट नहीं है, तो सब कुछ हो सकते हैं लेकिन शिष्ट नहीं। भ्रष्टाचार, शिष्टाचार के सर्वोच्च मापदण्ड के रुप में कब का स्थापित हो चुका है। ईमानदार होना अत्यंत असमान्य बात है, बेईमान होना न केवल सामान्य बात है बल्कि जीवन जीने के लिए पहली व सबसे बड़ी अपरिहार्य शर्त है। 


क्या सत्ता से समाज में बदलाव संभव है? या फिर समाज कई बार सत्ता को बदल चुका है? क्या भारतीय समाज में बेईमानी बहुमत में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है? जहां ईमानदारी शायद ही कभी अल्पमत से बहुमत में आ पाए। फिर ऐसे समाज-राष्ट्र के राजा या प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर इतना शक, इस तरह का लांछन क्यों?