शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

आंतरिक सुरक्षा मीड़िया के लिए बिकाऊ नहीं

आज का युग मीड़िया क्रांति का युग है। आज मीड़िया की प्रभावकता इतनी अधिक बढ़ गयी है कि मीड़िया किसी घटना विषय या व्यक्ति को अत्यल्प समय में अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बना सकता है और अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां रुपी अर्श से फर्श पर भी पटक सकता है। परन्तु ताज्जुब की बात यह है कि आंतरिक सुरक्षा जैसे गंभीर संवेदनशील राष्ट्रीय विषय पर मीड़िया अपनी सकारात्मक भूमिका की जगह ऊहापोह की स्थिति में नजर आ रहा है।
आज देश की आंतरिक सुरक्षा अत्यंत नाजुक दौर से गुजर रही है। एक ओर जेहादी आतंकवादियों का देश भर में फैलता हुआ संजाल तो दूसरी ओर नक्सली, पूर्वोत्तर के अलगाववादी संगठन, भारत माता के मष्तक कश्मीर को शाश्वत रणभूमि बना देने में संलग्न पाकिस्तानी आतंकी, अदृश्य रुप में चोरी, ड़कैती, तोड़फोड़ करने वाले लगभग 4 करोड़ बंग्लादेशी घुसपैठिए, देश के रोम रोम में अगणित वर्षों से समाये आईएसआई एजेन्टों द्वारा अत्याधुनिक संचार साधनों तथा अरब देशों से प्राप्त बेहिसाब पैसे और प्रशिक्षित दहशतगर्दों द्वारा जबरर्दस्त कहर ढ़ाया जा रहा है।



इस संजाल को तोड़ने में सरकार, पुलिस एवं गुप्तचर एजेंसियाँ तो हमेशा साँप निकल जाने पर लाठी पिटने जैसा कार्य कर रही है, क्योंकि इन सभी में कुछ देशद्रोही घुसे हुए है परन्तु मीड़िया में तो इस तरह की कोई बात नहीं है तो फिर मीड़िया स्वयं से अपनी भूमिका सार्वजनिक कर जनता जनार्दन को यह बताये कि उसका आंतरिक सुरक्षा से कोई सरोकार है या नहीं? यदि है तो इस सरोकार के लिए मीड़िया अब तक क्या-क्या कर चुका है?



कश्मीर के मामले में मीड़िया सरकार के एजेंट की तरह कार्य करती हुई प्रतीत हो रही है। कश्मीर में पिछले वर्ष तक लगभग सबकुछ ठीक रहने पर केन्द्र सरकार विशेष सशस्त्र बल अधिनियम हटाने व पाक अधिकृत कश्मीर गये आतंकवादियों के घर वापसी व पुनर्वास की व्यवस्था करने की कवायद कर रही थी तो मीड़िया ने सरकार से यह क्यों नहीं कहा कि कश्मीर अंदर ही अंदर शांति से सुलग रहा है। आखिर एक दिन यह आग व्यापक रुप से सबके सामने आ ही गयी।आखिर मीडिया आंतरिक सुरक्षा के मसले पर हमेशा दो कदम पीछे क्यों रह जाता है? क्या मीडिया न्यायपालिका और पानी की तरह आंतरिक सुरक्षा पर कोई अभियान नहीं चला सकता है?


जब कश्मीर में हालात अचानक विस्फोटक हो गये, तब सरकार की पुरजोर आलोचना, जब 26/11 को मुम्बई हमला हुआ तब सरकार की मुखर आलोचना, जब संसद पर हमला हुआ तब सरकार की चौतरफा आलोचना और 26/11 के बाद जब तक विस्फोट नहीं हुए तब तक तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की मुक्तकण्ठ से मीडिया में होने वाली सारी प्रशंसायें विस्फोट के फौरन बाद कठोर आलोचनाओं में तब्दील हो गयी।

पूर्वोत्तर के राज्यों में भारत से स्वतंत्र राज्य बनाने की माँग करने का एक प्रमुख आधार कश्मीर को मिला विशेष राज्य का दर्जा भी रहा है। पूर्वोत्तर के प्रमुख पृथकतावादी संगठनों में से प्रमुख यूनाईटेड लिबरेशन फ्रन्ट ऑफ असम अर्थात् उल्फा, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रन्ट ऑफ बोडोलैन्ड, नेशनल लिबरेशन फ्रन्ट ऑफ त्रिपुरा, मणिपुर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, मिजो नेशनल फ्रन्ट, नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैन्ड-आईजक मूईवा (एन एस सी एन- आई एम) आदि प्रमुख हैं परन्तु मीडिया में इनकी गंभीरता से चर्चा कम ही हो पाती है जबकि पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्य अशांति से ग्रस्त ही रहते हैं।

गत लोकसभा चुनावों के पेड न्यूज व मुम्बई के 26/11 हमले के कवरेज से मीडिया विश्वसनीयता के मामले में सबसे अविश्वसनीय हो गया है। विश्वसनीयता कभी खरीदी-बेची, बनाई-बिगाड़ी नहीं जा सकती, यह गणितबाजी-चालबाजी से निर्मित नहीं की जा सकती। यह कच्चे धांगे की तरह अत्यंत नाजुक होती है जो काल के कपाल पर मीडिया या व्यक्ति अपने मन-वचन, कर्म और आचरण से धीरे-धीरे अर्जित ही कर सकते हैं निर्मित नहीं कर सकते।

मीडिया अगर आंतरिक सुरक्षा जैसे किसी राष्ट्रीय मसले पर ठोस कवायद कर दे, तो वह अपनी अविश्वसनीयता को कुछ हद तक विश्वसनीयता में तब्दील कर पायेगा। पीपली लाईव फिल्म ने तो इलेक्ट्रानिक मीडिया की सारी कलई खोल कर रख दी है। दरअसल मीडिया का अब एक ही इष्ट देव है वह है लाभ-लाभ, बस लाभ, केवल लाभ। मीडिया लोक कल्याण के ध्येय को तिरोहित करने पर आमादा तो है लेकिन मजबूरी में, क्योंकि इष्टदेव की आराधना बंद करने पर वह कुपित भी हो सकते हैं। वैसे यदि देश गुलामी के दौर की तकनीक और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व नैतिक स्थिति व स्तर में नहीं जा सकता तो, मीडिया क्यों और कैसे चला जाय?

आंतरिक सुरक्षा की गंभीर स्थिति देश के आर्थिक विकास के लिए विकराल चुनौती है। आंतरिक सुरक्षा को नष्ट करने वाले दुर्जनों के विरुद्ध जब भी कारगर कार्रवाई की बात की जाती है, तब छद्म मानवाधिकारवादी हत्यारों के मानवाधिकार की बात करते नहीं अघाते। मानव अधिकार किसके? मरने वाले के या मारने वाले के, लेकिन मीडिया छद्म मानवाधिकारवादियों के चेहरे से नकाब को नहीं उतारती, क्योंकि मीडिया द्वारा इस विषय में किए गए प्रयत्न बिकाऊ या टी आर पी बढ़ाने वाले साबित नहीं होंगे।

राष्ट्र के संप्रभुता के सर्वोच्च प्रतीक संसद पर हमले के जुर्म में उच्चतम न्यायालय द्वारा मृत्युदंडित अफजल गुरू को कई वर्षों से छद्म सेकुरलवाद के कारण सजा नहीं दी जा पा रही है। भारत की मीडिया अफजल जैसे आतंकवादियों को क्या यह संदेश देना चाहती है कि राष्ट्र ऐसे आतंकियों को सजा देने के मसले पर एक मत नहीं है। इस विषय पर कोई प्रयत्न नहीं करने से तो यही साबित होता है कि मीडिया आंतरिक सुरक्षा के मसले पर केवल हमले के बाद की सख्त रिपोर्टिंग तक सीमित रहता है। हमले के बाद आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाने हेतु मीडिया कुछ नहीं करना चाहता।

मीडिया की आलोचना इतनी सतही और स्तरहीन है कि वह सुरक्षा व्यवस्था की कठोरता, मजबूती या अभेद्यता पर आधारित ना होकर हमले या बम विस्फोट पर आधारित है। जिस सुरक्षा-व्यवस्था की प्रशंसा हमले या विस्फोट नहीं होने पर मुक्त कंठ से होती है उसी व्यवस्था की विस्फोट के बाद चौतरफा अतिशय आलोचना होती है। मीडिया इस व्यवस्था का सूक्ष्म विश्लेषण करके आलोचना इसलिए नहीं करता, क्योंकि ऐसा करके मीडिया अपनी टीआरपी या पाठक संख्या को नहीं बढ़ा पायेगा।

यह कटु सत्य है कि अब मीडिया का आर्थिक जीवनचक्र पूर्णतया बाजार-आधारित है, मिशन-आधारित नहीं। वर्तमान मीडिया को संतुलित और पौष्टिक आहार देकर पेट भरने का काम केवल बाजार ही कर सकता है, सामाजिक राष्ट्रीय मिशन नहीं।

आंतरिक सुरक्षा के लिए व्यवस्थापिका व कार्यपालिका अपनी-अपनी भूमिकाओं में मुस्तैद है कि नहीं, इसकी कड़ी निगरानी करके जनता-जनार्दन को अवगत कराने का काम मीडिया का ही है। अगर सत्ता अपनी सुविधा हेतु सामान्य जनजीवन के लिए अपरिहार्य सुरक्षा के विषय को हाशिए पर धकेल रहा है तो मीडिया को इस विषय को चर्चा के केन्द्र में लाकर सत्ताधीशों पर दबाव बनाये क्योंकि ऐसा काम केवल मीडिया ही कर सकता है।

यदि मीडिया आंतरिक सुरक्षा पर अपना कर्तव्य निभाने के मामले में पुलिस, गुप्तचर एजेन्सियों तथा सरकार जैसे ही असफल है तो उसे अन्य तीनों लोकतांत्रिक स्तम्भों को कठघरे में खड़ा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। यदि मीडिया लोकतंत्र में तीनों स्तम्भों के बराबर की (लम्बाई व मजबूती का) भागीदार है तो उसकी लोकतंत्र के हर मसले पर बराबर की जिम्मेदारी भी निश्चित रुप से है।

भारत जैसे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक, सांस्कृतिक-धार्मिक-पारम्पिरक वैविध्य वाले देश में आंतरिक सुरक्षा को राष्ट्रव्यापी स्वरूप में अक्षुण्ण बनाए रखना वोट बैंक को दृष्टिगत रखकर हर फैसला करने वाली सरकार के लिए अत्यधिक दुरूह कार्य है। मीडिया आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाने के लिए ना तो सरकार के समानांतर कार्य कर सकता है, न ही खुद सरकार बन सकता है। वह अपनी सीमा में रहकर, केवल प्रचंड व बाध्यकारी जनमत का निर्माण कर सकता है। जब मीडिया सामाजिक राष्ट्रीय सरोकारों के तहत आंतरिक सुरक्षा के लिए जबरदस्त अभियान चलाएगा तो उससे उसका व्यवसायिक हित जरूर प्रभावित होगा। मसलन, मीडिया को यदि सामाजिक राष्ट्रीय सरोकार व व्यवसायिक हित में से किसी एक को प्राथमिकता देनी हो, तो वह निश्चित रूप से व्यवसायिकता को पहली प्राथमिकता देगा।  

आदर्श कहता है कि मीडिया जनगणमन को वह न दे, जो की वह मीडिया से चाहता है, बल्कि मीडिया जनगणमन को वह दे जो की मीडिया को उसे देना चाहिए। परन्तु वैश्वीकरण का वर्तमान वैश्विक परिदृश्य मीडिया से यह चीख-चीख कर कह रहा है कि वैश्वीकरण के विरोध से मीडिया का विकास एकांगी होगा, जो वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में शायद ही टिक पाये।         


वर्तमान बहुमत शासित वैश्विक व भारतीय परिदृश्य में मीडिया पाठक-दर्शक-श्रोता सुरक्षा जैसे किसी गंभीर विषय को पढ़ना-देखना-सुनना नहीं चाहते हैं। बहुमत का दबाव है कि हल्की, मनोरंजक, चटपटी, गॉशिप वाली फिचरिस्टिक खबरें मीडिया में बहुतायत से रहे, तो मीडिया जनमत की अवहेलना कैसे करे? जनमत आदर्श, औसत, उत्कृष्ट या निकृष्ट कुछ भी हो सकता है, परन्तु पहले वह जनमत है, उसकी अवहेलना खबरपालिका सहित चारों स्तम्भों के लिए लगभग नामुमकिन ही है।