कोलगेट
में फिर से फंसी यूपीए सरकार
कुन्दन
पाण्डेय
सी
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बीआइ ने ओड़िशा में 2005 के तालीबारा कोयला ब्लाक आवंटन मामले
में देश के ख्यात उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला व पूर्व केंद्रीय कोयला सचिव पीसी
पारेख के खिलाफ कोयला मामले में 14वीं एफआईआर दर्ज कर दी
है। इसमें पारेख और बिड़ला को आपराधिक षडयंत्र का आरोपी बनाया गया है। इसके बाद
पारख ने दावा किया कि आखिरी फैसला प्रधानमंत्री ने लिया था, इसलिए उन्हें भी आरोपी बनाया जाना चाहिए।
कोयला घोटाले का खुलासा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने किया था। कैग ने पीसी पारेख को इस
घोटाले का ‘विसल ब्लोअर’ भी
कहा था। कैग रिपोर्ट के अनुसार पारेख ने कोयला ब्लाक आवंटन की प्रक्रिया का विरोध
किया था। उस समय कोयला मंत्रालय का प्रभार पीएम के पास था। पारेख ने कोयला
राज्यमंत्री दसारी नारायण राव से आवंटन के लिए नीलामी की प्रक्रिया अपनाए जाने की
सलाह दी थी। पारेख ने इस पर एक कैबिनेट नोट भी तैयार किया था, जिस पर 2006 से 2009
तक राज्यमंत्री रहे दसारी नारायण राव ने संज्ञान क्यों नहीं लिया? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। 2006 से 2009 तक कोयला
मंत्रालय का प्रभार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास था।
बिड़ला की कंपनी हिंडाल्को को भी कोयला ब्लॉक सीधे नहीं आवंटित
हुए थे। किसी और कंपनी को आवंटित हुए कोयला ब्लॉक को 2000 में हिंडाल्को ने जुगाड़
से खुद को आवंटित करा लिया। इसी आधार पर नया बखेड़ा खड़ा हुआ है।
कोयला और इस्पात उद्योग के लिए गठित स्थायी समिति की रिपोर्ट
के अनुसार 1993-2008 के बीच केंद्र सरकार ने 195 कोल ब्लॉक निजी कंपनियों को
आवंटित किए, इनमें 2004-2008 के बीच यूपीए-1 के शासनकाल में 160 कोयला भंडार
आवंटित हुए। इस समय 160 में केवल 2 कंपनियां उत्पादन कर रही हैं। समिति ने सिफारिश
की थी कि जो कंपनियां उत्पादन नहीं कर रहीं, उनका आवंटन रद्द कर दिया जाए। अब तक
किसी भी कंपनी पर कार्रवाई नहीं हुई है, और आगे भी किसी कंपनी पर कार्रवाई होने के
कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
भ्रष्टाचार की मूल बात यह है कि 160 में से 158 कंपनियां अभी
तक कोयला भंडारों से कोयले का उत्पादन क्यों नहीं कर रही हैं? कंपनियां
उत्पादन इसलिए नहीं कर रही हैं क्योंकि उन्हें कोयला बेचने की अनुमति ही नहीं है।
कंपनियों को इस शर्त पर कोल ब्लॉक आवंटित हुए थे कि वे कोयला निकालकर अपने स्वयं
के बिजली, इस्पात या किसी अन्य संयंत्र में ही अनिवार्य रूप से प्रयोग करेंगी।
स्मरण रहे, कंपनियां खुद ही अंतिम उपभोक्ता (एंड यूजर्स) थीं, वे किसी और को
उपभोक्ता बनाने की अधिकारिणी नहीं थीं।
प्रश्न उठता है कि यदि पीएम या किसी अन्य अफसर के पास अपने
कनिष्ठ अधिकारियों के गलत काम को रोकने का अधिकार है और वह अपने मातहत अफसर के गलत
काम को रोकने की जगह अपना हस्ताक्षर कर उसे आगे बढ़ा देता है तो वह प्रथम दृष्टया
दोषी ही है। मनमोहन सिंह ईमानदार हैं! लेकिन ईमानदारी के साथ-साथ अपने सभी
मातहत अधिकारियों, केंद्रीय मंत्रियों के गलत कामों पर हस्ताक्षर करने के लिए जिम्मेदार
भी हैं। केंद्र सरकार ने जिसको निशाने पर लेकर
कमाल करने का दांव चला था, लेकिन बिना विचारे ऐसा करके वो अपने ही दांव में ही
बुरी तरह फंस गई लगती है।
पीएम
भारत में अपने मातहत अधिकारियों के हर फाइल पर हस्ताक्षर करने का कानून क्यों नहीं
बना देते? साथ ही यह भी कानून बना देना चाहिए कि थानेदार की गलती के
पुलिस अधीक्षक और उप जिलाधिकारी की गलती के लिए डीएम की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी,
और न ही उन पर इसके लिए कोई कार्रवाई की जाएगी। यदि
पीएम अपने रेग्युलर टच में रहने वाले कैबिनेट मंत्री या केंद्रीय मंत्री को
भ्रष्टाचार करने से नहीं रोक पाने के दोषी नहीं हैं तो कैबिनेट के सामूहिक
उत्तरदायित्व का अब से कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा।
राज्यसभा में कांग्रेस के नेता के तौर पर 1998 में मनमोहन सिंह
ने ही कहा था कि ‘इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ चुकी है’। लेकिन आज वे इस व्यवस्था की सड़न को घटाने की जगह, बढ़ाते हुए से क्यों
प्रतीत हो रहे हैं!
संप्रग 2 के कार्यकाल में बतौर पीएम मनमोहन सिंह ने कहा था,
‘स्थाई
पूंजीवाद भारत के लिए नुकसानदायक हो सकता है,‘ लेकिन
इस मामले में तो प्रधानमंत्री के अधीन कोयला मंत्रालय से कोयले की लूट पर मुहर
लगाई गई है।
इस मामले में केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने
तो सीबीआइ की कार्रवाई की तुलना औरंगजेब के शासन से करके बहुत सी बातें संकेतों
में कह दीं। उन्होंने कहा; कानून को अपना काम करने देना चाहिए, लेकिन यह भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं
है। सुप्रीम कोर्ट, केंद्र सरकार या कोई भी एजेंसी कानून
से बड़ी नहीं है। भारत में रूस की तरह काम नहीं किया जा सकता, जहां सभी अरबपतियों को जेल में डाल दिया जाता है। यहां अब कोई
औरंगजेब का शासन नहीं है। यहां कानून का राज चलता है।
भारत में भ्रष्ट अधिकारियों, भ्रष्ट नेताओं-मंत्रियों को छोड़
दिया जाता है, लेकिन ईमानदार अधिकारियों को खूब परेशान किया जाता है। जैसे अब अशोक
खेमका को किया जा रहा है। यह सब लोकतंत्र, बहुमत और भ्रष्ट लोगों के निर्वाचित हो
जाने के आधार पर किया जाता रहा है। भारत पर शासन करने वाली राजनीतिक जमात क्या यह नहीं
जानती कि भारतीय शास्त्रों और नीतियों के अनुसार बहुमत केवल यह तय करता है कि शासक
या प्रधानमंत्री कौन होगा? लेकिन शासक या पीएम क्या करेंगे? यह बहुमत नहीं
लोकमत या नीतिमत-शास्त्रमत तय करते हैं। कहने का आशय यह है कि पीएम ऐसा कुछ नहीं
कर सकते जिससे लोक का अहित हो। पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एनसी सक्सेना ने कहा था कि भ्रष्टाचार में जोखिम कम और लाभ ज्यादा है। मतलब साफ
है, घोटाले के आरोप में कुछ साल या महीने सारी आधुनिक सुविधाओं के साथ जेल का
शांतिप्रिय-एकांतप्रिय पर्यटन, और लूटा गया पूरा माल स्विस बैंको में सुरक्षित।
पूर्व कोयला सचिव ईएएस शर्मा ने 15 जून 2012 को सीवीसी को पत्र
लिखकर कोलगेट के साथ ही तीन अन्य घोटालों में पीएमओ (प्रधानमंत्री
कार्यालय) की जांच करने का निवेदन किया था। हो सकता है कि जांच में
पारेख दोषी पाएं जाएं, लेकिन कनिष्ठ अफसरों के गलत कामों की संस्तुति करने वाले
पीएमओ के अधिकारियों और प्रधानमंत्री ने गलत फाइलों पर हस्ताक्षर क्यों किए? क्या इन्हें फाइल पढ़कर गलत और सही में अंतर नहीं समझ में आया? शासक संदेह से परे युग और उस युग की कार्य-संस्कृति का
निर्माता होता है।
व्यास ने महाभारत में लिखा है कि, ‘राजा कालस्य कारणं’ अर्थात राजा और उसके शासन से युग का
निर्माण होता है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री और यूपीए शासन कैसे युग का निर्माण
कर रहे हैं, शायद ही इस पर कांग्रेस, सोनिया या राहुल सोचते हों। यदि प्रशासन और
समाज में सत्य और न्याय के शासन की रीढ़ टूटी हुई हो तो वह राष्ट्र अधोगति को
प्राप्त हो जाएगा। वैदिक काल का एक सूत्र है – ‘राष्ट्रे जागृयाम वयं’ अर्थात हम राष्ट्र में जागते रहे, तभी
राष्ट्र प्रगति कर सकता है। आज-कल भारत में तो जनता के साथ-साथ शासक भी सो रहे
हैं।
महाभारत के अनुशासन पर्व (671/32,33) में साफ-साफ लिखा है कि, ‘जो रक्षा नहीं करता, जो स्वयं सब कुछ
हड़प लेता है, जो प्रजाओं के अधिकार को चूसता है, जो उन्हें नेतृत्व नहीं देता,
ऐसे कलियुगी राजा को प्रजाएं निष्ठुरता से मिटा दें। मैं रक्षा करूंगा – ऐसा कहकर
जो फिर रक्षा नहीं करता, वह उन्माद से पागल कुत्ते की तरह प्रजाओं से मारे जाने
योग्य है।‘ क्या केंद्र सरकार में इनमें से
कुछ गुण नहीं हैं?
भारत पर शासन
करने वाली राजनीतिक जमात क्या यह नहीं जानती कि भारतीय शास्त्रों और नीतियों के
अनुसार बहुमत केवल यह तय करता है कि शासक या प्रधानमंत्री कौन होगा? लेकिन शासक या
पीएम क्या करेंगे यह बहुमत नहीं लोकमत या नीतिमत-शास्त्रमत तय करते हैं। कहने का
आशय यह है कि पीएम ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिससे लोक का अहित हो। जब सम्राट अशोक ने बौद्ध संघ को
राज्य की सारी संपत्ति देनी की घोषणा की तो सम्राट अशोक के प्रधानमंत्री (महामंत्री) राधगुप्त ने मंत्रिपरिषद (परिषद) की अनुमति से सम्राट के इस प्रस्ताव को
खारिज कर दिया। भारत में राजाओं की तरह उनके प्रधानमंत्री भी यशस्वी हुए हैं,
इनमें प्रमुख हैं चंद्रगुप्त के प्रधानमंत्री आचार्य चाणक्य, अजातशत्रु के आर्य
वर्षकार, वत्सराज उदयन के यौगंधरायण, कोसलराज विड्दभ के दीर्घ चारायण आदि प्रमुख
हैं। आज के पीएम की छवि इनके सामने कहीं नहीं टिकती।
राज्यसभा के एक प्रवेश द्वार पर तैत्तरिय
उपनिषद् का यह सूत्र अंकित है - ‘सत्यं वद, धर्मं चर’, अर्थ है कि हर हाल में सत्य बोलो
और धर्म पर चलो। हमारे पीएम राज्यसभा के ही सदस्य
हैं। उनके कार्यकाल में ही केंद्र सरकार में सर्वत्र असत्य का बोलबाला है।
मुण्डकोपनिषद् (3-1) में लिखा है
कि ‘सर्वदा सत्यसैव जयो भवति’, इसी का संक्षिप्त रूप ‘सत्यमेव जयते’ भारत का राजचिन्ह है। यह बात अलग है कि इस
समय की भारतीय राजनीति, असत्य की दिग्विजय को सुनिश्चित करने में शाश्वत रूप से
सन्नद्ध होकर अपने राजचिन्ह का ही मखौल उड़ाती प्रतीत हो रही है।
अन्ना के आन्दोलन से एक बात देश का हर नागरिक स्पष्टता से जान
गया कि भारतीय संविधान में प्रधानमंत्री एक ऐसा अघोषित पद बना दिया गया है कि उस
(पीएम) पर,
पद पर बने रहते आरोप लगाया जा सकता है, उंगली उठाई जा सकती है, परन्तु जांच
नहीं की जा सकती। एक ईमानदार व सच्चे इंसान (पीएम मनमोहन सिंह) की जांच से
लोकतंत्र के अस्थिर होने की बात गले के नीचे नहीं उतरती। टीम इंडिया के कप्तान और
वर्तमान भारत सरकार के कप्तान की तुलना करना यहां लाजिमी होगा।
वर्तमान भारत सरकार के कप्तान (पीएम) निःसंदेह व्यक्तिगत रूप
से ईमानदार हैं, परन्तु जरूरत केवल नेतृत्व कर्ता कप्तान
के व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होने की नहीं बल्कि कप्तान की टीम के हर एक सदस्य के
ईमानदार होने की है, तभी लोकतंत्र सुचारु रूप से चलेगा।
खासकर तब जब टीम के कई सदस्यों पर गबन के आरोप हों। धोनी और पीएम दोनों ईमानदार
हैं परन्तु धोनी की पूरी टीम निहायती ईमानदार है जबकि पीएम के बारे में इसका ठीक
उल्टा है,
जिसके एक पूर्व सदस्य जेल जा चुके हैं, और कई सदस्य
त्यागपत्र दे चुके हैं।
भारतीय लोकतंत्र जनता से कहता है कि
विदेशी बीटी बैंगन, विदेशी शिक्षा, विदेशी तकनीक, विदेशी परमाणु ऊर्जा, विदेशी
वालमार्ट और नीलामियों की जगह औने-पौने दाम पर देश के संसाधनों का आवंटन, इन सबसे
भारत को लाभ ही लाभ है। क्या भारत के पास ऐसा कुछ नहीं है, जो विदेशों में बेचा जा
सके, जिससे भारत भी कुछ पैसे कमा सके? हमारा
लोकतंत्र इन प्रश्नों पर रहस्यमय रूप से खामोश हा जाता है। इसी तरह के अनगिनत
प्रश्नों पर खामोशी के कारण लोकतंत्र पर अब भरोसा लगातार कम होता जा रहा है।
(लेखक राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मामलों पर लिखते हैं)