दुनिया भर के मानव सम्मिलित रुप से एक वर्ष में करीब 8 अरब मीट्रिक टन कार्बन पर्यावरण में उत्सर्जित करते हैं, जबकि बदले में पर्यावरण का पारिस्थितिकी तंत्र, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की ताजा रिपोर्ट के अनुसार विश्व मानवता को लगभग 3258 खरब रुपये से भी कही अधिक मूल्य की सेवाएं प्रदान करता है। कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि मानव सभ्यता के कांटों के सौगात के बदले, प्रकृति अब भी मानव को फूलों का गुलदस्ता बिना रुके, बिना थके भेंट करती जा रही हैं। क्या सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव, पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचाकर सृष्टि की सबसे विकृत कृति बनता जा रहा है? मानव तो नहीं, लेकिन मानव द्वारा अंगीकृत आर्थिक विकास मॉडल जरूर विकृत है।
यह आर्थिक विकास मॉडल अधिकतम से अधिकतम उपभोग पर आधारित है। विश्व के लगभग सभी देश इसी विकास मॉडल से विकास की राह पर चलने के कारण प्रकृति के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। कम्युनिस्ट चीन ने विश्व से कह दिया कि वह पर्यावरण के लिए अपनी ऊर्जा उपभोग को कम नहीं करेगा, चाहे भले ही इससे पर्यावरण को क्षति होती रहे। अन्य देशों का भी लगभग यही जवाब है। कभी कभी ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक तरफ तो विकास कर रहे हैं तो दूसरी तरफ न्यूटन के मुताबिक उसके बराबर परन्तु विपरीत दिशा में अपने विनाश का इंतजाम भी कर रहे हैं ग्लोबल वार्मिंग जैसे दानव को बढ़ाकर।
भारत और चीन तथा हिमालय के चारों तरफ के देशों के लिए हिमालय व गंगोत्री, यमुनोत्री के ग्लेशियरों के 2035 तक पिघलकर समाप्त होने की संभावना चिंताजनक है। वर्तमान में हिमालय के ग्लेशियर 18 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल रहे हैं। इससे एशिया की एक तिहाई जनसंख्या को पानी देने वाली बड़ी नदियां समाप्त हो जायेंगी। गंगा के न होने पर भारत और बंग्लादेश के धान के कटोरे हमेशा के लिए न केवल सूख जायेंगे बल्कि सूखे से भी ग्रस्त हो जायेंगे।
क्या भारत के लोग गंगा नदी और अपने धान की फसल से हमेशा हमेशा के लिए महरुम होना पसंद करेंगे? परन्तु संतोषजनक बात यह है कि एक तरफ तो भारत, चीन और नेपाल ने संयुक्त रूप से मिलकर कैलाश पर्वत के पारिस्थितिकी तंत्र को संवारने का फैसला किया है। तो दूसरी तरफ भारत और बंग्लादेश सुंदरवन में संसार का सबसे बड़ा नदी डेल्टा तंत्र बनाने पर सहमत हो गये हैं। इसके लिए दोनों देश शीघ्र ही ऐसा समझौता करेंगे जिसके तहत इसके लिए पारिस्थितिकी फोरम विकसित किया जाएगा।
अभी तक मानव पृथ्वी के करीब 45 प्रतिशत वनों को नष्ट कर चुका है। गत 20 वीं सदी में अब तक सबसे अधिक वनों को नष्ट किया गया है। तापमान में यदि 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो पृथ्वी पर पायी जाने वाली प्रजातियों में से लगभग 15 से 40 फीसदी प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर होंगी। वनों की अंधाधुंध कटाई और जलवायु परिवर्तन से 17,291 जन्तुओं और पादपों की प्रजातियां वर्तमान समय में ही विलुप्त होने की कगार पर हैं।
पर्यावरण के लिए अपरिहार्य जल के प्रदूषण की बात करे तो देश में जल प्रदूषण की स्थिति स्तब्धकारी है। मोक्षदायिनी मानी जाने वाली गंगा की स्थिति अत्यंत चिंतनीय है। कारण कि गंगा नदी के प्रति 1000 मिलीलीटर जल में 60 हजार मल बैक्टीरिया पाये जाते हैं, यह स्नान करने योग्य जल की अपेक्षा 120 गुना अधिक प्रदूषित है। देश की केवल 89 प्रतिशत जनसंख्या के पास पीने के पानी का स्रोत है जबकि देश के 2.17 लाख घरों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार प्रतिदिन भारत में प्रदूषित जल से होने वाले डायरिया से 1000 बच्चे मरते हैं। देश में 33 प्रतिशत वायु प्रदूषण वाहनों से निकलने वाले धुएं से होता है।
ग्लोबल वार्मिंग पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने पन्द्रहवां अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन कोपेनहेगन में कराया। गौरतलब है कि यू एन ओ सन् 1972 से जलवायु सम्मेलन आयोजित कर रहा है। परन्तु अभी तक केवल जापान के क्योटो में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाने के लिए एक ठोस समझौता हुआ था। इस समझौते को फरवरी 2005 से लागू करना था। संसार के न केवल 141 देशों ने इस पर अपने हस्ताक्षर किए बल्कि अधिकतर देशों की संसद ने भी इसका अनुमोदन कर दिया। परन्तु इन देशों की संसदों की सारी कवायदें तब धरी की धरी रह गयी जब अमेरिका की सीनेट ने इसका अनुमोदन नहीं किया।
बिल क्लिंटन के हस्ताक्षर पर मुहर नहीं लगने का कारण यह था कि क्योटो प्रोटोकॉल विकसित और औद्योगिक देशों के लिए बाध्यकारी थी जिसमें एक निश्चित सीमा तक कार्बन उत्सर्जन में कमी न करने पर दण्ड तक का प्रावधान था। क्योटो प्रोटोकॉल में 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत कमी करने का बाध्यकारी लक्ष्य था। क्योटो प्रोटोकॉल तथा गत कोपेनहेगन की असफलता से अब तो शायद ही विकसित देशों, भारत की सदस्यता वाले बेसिक देशों तथा तीसरी दुनिया के देशों में कोई सर्वमान्य समझौता हो। गौरतलब है कि क्योटो प्रोटोकॉल 2012 में समाप्त हो जाएगा।
दरअसल सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश अमेरिका के सहयोग के बिना सारे समझौते बेमानी हैं। लेकिन अमेरिका अपनी जिम्मेदारी से लगातार पीछे हट रहा है। हालांकि बीते लगभग 200 वर्षों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए केवल विकसित देश ही जिम्मेदार हैं। वैश्विक ऊष्णता का एक मात्र कारण मानव का उपभोक्तावादी आर्थिक विकास मॉडल है जिसे बदलना नामुमकिन प्रतीत हो रहा है।
भारत सहित विकासशील देशों का कहना है कि उनके देश में तो अभी तक अधोसंरचना ही विकसित नहीं हो पायी है। इन देशों की महत्तम जनसंख्या की मूलभूत आवश्यकता ही अभी तक पूरी नहीं हो पायी है। ऐसी सूरत में अमेरिका की भारत और चीन से कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए दबाव देना अनुचित है। अमेरिका सहित सभी विकसित देश विकासशील और तीसरी दुनिया के देशों से व्यावहारिक शर्तों पर एक बाध्यकारी वैश्विक समझौता करके अभी भी पर्यावरण और पृथ्वी को बचा सकते हैं।