भ्रष्टशिष्ट तंत्र का कारण समाज
संदर्भ: अन्ना हजारे का आमरण अनशन
कुन्दन
पाण्डेय
भारत का संसदीय लोकतंत्र चुनावों पर
आधारित है, चुनावों
को यदि श्वशन तंत्र माना जाय तो मत या वोट उसका ऑक्सीजन है। चुनाव रुपी श्वशन
तंत्र लोकतंत्र के लिए अत्यधिक महँगा हो चुका है। यहीं से भ्रष्टाचार की शुरुआत
मानी जा सकती है। ऑक्सीजन रुपी मतदाता के मत के जाति, धर्म,
क्षेत्र, लोभ आदि के आधार पर बँटा होना
भ्रष्टाचार रुपी आग में घी का काम कर रहा है। इस बार चुनाव आयोग ने सभी
प्रत्याशियों को अपने समस्त चुनाव खर्च एक नये बैंक खाते खोलकर करना अनिवार्य कर
दिया है।
लोकतंत्र
को भ्रष्टाचार रूपी दुष्चक्र ने वर्तमान समय में ऐसे जकड़ रखा है जैसे कि वह कोई
असाध्य रोग है। भ्रष्टाचार वर्तमान में न केवल असाध्य रोग प्रतीत हो रहा है बल्कि
यह सबसे अधिक संक्रामक रोग हो गया है। भ्रष्टाचार सबसे आकर्षक वायरस है, जिसे अधिकतर व्यक्ति खुशी-खुशी पाने के
लिए मर-मिटने (नेता-नौकरशाह बनने) को तत्पर रहते हैं।
भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए समाज-कानून
में कहीं भी रंचमात्र की प्रेरणा दिखाई नहीं देती। जब देश में तेल माफिया इतने
शक्तिशाली होंगे कि वे उप जिलाधिकारी स्तर के अधिकारी को तेल ड़ालकर जिंदा जला कर
मार सके तो भारत का कौन अधिकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा
पायेगा। खुद को जान का खतरा होने पर तथा परिवार और बच्चों की जान की कीमत पर शायद
ही अधिकतर नौकरशाह कार्रवाई करने को तैयार हो।
ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल नामक
अंतरराष्ट्रीय एनजीओ के नवीनतम भ्रष्ट देशों की सूची में भारत 87 वें स्थान पर है अर्थात 86 देश भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत से अधिक कड़ी कार्रवाई करते हैं, अमेरिका की एफबीआई तो बिना किसी की अनुमति लिए गवर्नर तक के खिलाफ सीधे
कार्रवाई करने में सक्षम है।
कितनी स्तब्ध करने वाली बात है कि घोटाले या भ्रष्टाचार
का आरोप सिद्ध होने के बाद भी संबंधित व्यक्ति की काली सम्पत्ती को जब्त करने का
कोई कानून कोई भी राजनीतिक दल नहीं बनने देना चाहता। लेकिन, भारत
में राजनेता और नौकरशाह सीबीआई को एफबीआई इतना शक्तिशाली बनना शायद ही बर्दाश्त
करे।
संसद मनमोहन सिंह द्वारा शुरु किए गए
उदारीकरण निजीकरण वैश्वीकरण (एलपीजी) को भ्रष्टाचार को बढ़वा देने वाला तो मानती
है। परन्तु संसद भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए उठाये जाने वाले कदमों के बारे
में या तो खामोश है या तो टालमटोल करके अपने उत्तरदायित्व से भाग रही है।
भ्रष्टाचार निरोधक लोकपाल बिल का सन् 1968 से लंबित रहना इसका ज्वलंत उदाहरण है।
देश के
विशेषाधिकार से विभूषित सांसदों ने अब तक संसद में पेश सभी खानापूर्ति करने वाले
विधेयकों को जब पारित नहीं होने दिया गया तो कड़े प्रावधान वाले विधेयक कैसे पारित
हो सकते हैं? भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की जगह
गठबंधन सरकार की मजबूरियों का रोना रोने वाले प्रधानमंत्री देश की गाँव तक की
पंचायतों को मजबूरी के आधार पर क्या-क्या करने की छूट देना चाहते हैं?
भाजपा और विपक्षी दलों द्वारा जेपीसी की
मांग का उद्देश्य 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर कार्रवाई कराना नहीं है अपितु मनमोहन सरकार को
जनता में इस तरह बदनाम कराना है कि वह अगले आम चुनाव में जनता का मन न मोह सके।
जिस बोफोर्स दलाली के जिन्न के आज भी बाहर आने पर सभी विपक्षी दल अपनी राजनीतिक
रोटियां आज भी सेंकते हैं, उसकी जेपीसी जांच से किसको सजा
हुई?
दिन दूने रात चौगुने की रफ्तार से बढ़ रहे
भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए देश को एक और जे पी आन्दोलन की सख्त जरुरत हैं।
परन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आज की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिदृश्य वाले
समाज में जे पी जैसा कोई व्यक्तित्व हो सकता है? जो मंत्री, प्रधानमंत्री तो
बहुत बड़ी बात है, सांसद या विधायक तक न बना हो। लेकिन,
इंदिरा गाँधी के खिलाफ आन्दोलन को सफल करने के लिए लाखों लोगों को
जोड़ने की क्षमता रखते थे। जबकि 1960 के दशक में इंदिरा
गाँधी ने दलबदल विरोधी कानून का मसौदा तैयार करने के लिए जयप्रकाश नारायण के
नेतृत्व में एक समिति बनाई थी। आज के नेता तो एक और समिति के अध्यक्ष बनने की आशा
में तुरंत समझौता कर लेंगे।
ऐसे में अन्ना हजारे जैसे व्यक्तित्व का अनशन एक आशा
की किरण बनकर आया है। यदि देश की 121 करोड़ में से केवल 10 प्रतिशत जनसंख्या देश के सभी 640 जिलों में जोरदार
तरीके से अनिश्चितकालीन अनशन करे, तो, निश्चित ही केन्द्र सरकार पर बाध्यकारी दबाव
बनेगा।
परन्तु असली समस्या राजनैतिक
भ्रष्टाचार या काला धन नहीं है बल्कि कोयले से भी अधिक काला हमारा समाज और इस समाज
के दो-तिहाई से भी कहीं अधिकतम घर। आज के दौर में सफलता पाने के लिए और कुछ हो या
न हो ये 4 चीजें नहीं होनी चाहिए- गैरत, शर्म,
जमीर और पीठ में रीढ़ की हड्डी।
क्या यह कड़वी सच्चाई नहीं है कि आज
के समाज में यदि आप भ्रष्टशिष्ट नहीं है, तो सब कुछ हो सकते
हैं लेकिन शिष्ट नहीं। भ्रष्टाचार, शिष्टाचार के सर्वोच्च
मापदण्ड के रुप में कब का स्थापित हो चुका है। ईमानदार होना अत्यंत असमान्य बात है,
बेईमान होना न केवल सामान्य बात है बल्कि जीवन जीने के लिए पहली व
सबसे बड़ी अपरिहार्य शर्त है।
क्या सत्ता से समाज में बदलाव संभव है? या फिर समाज कई बार सत्ता को बदल चुका है? क्या
भारतीय समाज में बेईमानी बहुमत में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है? जहां ईमानदारी शायद ही कभी अल्पमत से बहुमत में आ पाए। फिर ऐसे
समाज-राष्ट्र के राजा या प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर इतना शक, इस तरह का लांछन क्यों?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें