संघ और अक्षम भाजपा से फोबियाग्रस्त केन्द्र की यूपीए सरकार को जनता बदलना चाहती है। लेकिन उसके पास विकल्प का घोर अभाव होना लोकतंत्र की पतली हालत का द्योतक है क्योंकि जनता को विपक्ष और सरकार में कोई अंतर नहीं दिखता। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सरकार ने गहन रात्रि में सोते लोगों पर लाठीचार्ज कराके जलियावाला बाग हत्याकांड को एक मायने में पीछे छोड़ दिया है क्योंकि हत्याकांड जागते लोगों पर हुआ था और रामलीला मैदान में लाठीचार्ज सोते हुए लोगों पर यह कह कर किया गया है कि यहां अनुमति की निर्धारित संख्या से अधिक लोग है। निर्धारित संख्या से अधिक का जब पहला व्यक्ति आया, तभी उसको सरकार या पुलिस ने बाहर क्यों नहीं रोका।
दरअसल सरकार हिंसा करने के पश्चात मासूम से मासूम जवाब दे रही है। ऐसे ही मासूम जवाबों पर सरकार उच्चतम न्यायालय में अपनी साख को कई बार बट्टा लगा चुकी है। यदि सरकार बाबा रामदेव और उनके समर्थकों, अनुयायियों और बुद्धिजीवियों में भय का साम्राज्य कायम करना चाहती है। तो इससे अण्णा हजारे और उनके समर्थक नहीं डरेंगे। यदि सरकार पूरे देश में एवं देश के सभी नागरिकों में भय का शासन स्थापित करना चाहती है, तो ऐसी सरकार का पतन अवश्यम्भावी है। क्योंकि इतिहास गवाह है कि भयकाल और युद्धकाल का राज्य शांति काल में नष्ट हो जाता है। किसी के शासन काल का बहुत अल्प समय युद्धकाल या भयकाल का होता है, अधिकांश समय में शांतिकाल ही व्याप्त रहता है।
यह सरकार तो सोते हुए 5,000 हजार से कुछ अधिक लोगों से ही डर गयी। सोते लोगों ही नहीं महिलाओं पर भी हिंसक लाठीचार्ज किया गया। इतनी डरी हुई सरकार को सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है। सोचिए यदि किसी दुश्मन देश की केवल 50,000 हजार की ही सशस्त्र सेना आक्रमण कर दे, तो सरकार तो, मारे डर से ही कहीं छुप जायेगी। सत्ता तो दबंग होती है, सरकारें व शासक निर्भयी होते हैं। जो सोते लोगों से डर गया वो सरकार क्या? जो संघ से डर गया वो कांग्रेस क्या? जो तथाकथित नचैयों की पार्टी से डर गया वो राजनीतिक पार्टी क्या?
लेकिन संप्रग 2 की केन्द्र सरकार है एकदम अनोखी और निराली सरकार। बेचारगी की शिरोमणि सरकार। जिसको देखो वही डांटे जा रहा है, कभी विपक्ष डांट रहा है तो कभी माननीय न्यायालय अपने फैसलों से डांट रहा है, कभी मीडिया डांट रहा है। अब तो सिविल सोसायटी भी सरकार को डांट रहा है। बस फिर क्या था; सरकार पिल पड़ी सिविल सोसायटी के लोगों पर। क्या सिविल सोसायटी के लोग भी सरकार को डांटेंगे? इतनी हिमाकत सिविल सोसायटी की। सिविल सोसायटी को सरकार ने न भूलने वाली एक ठोस सबक दे दी।
कुछ स्वनामधन्य राजनेताओं का कहना है कि राजनीति करना राजनीतिक दलों का काम है। कोई अन्य आजीविका चलाने वाला व्यक्ति यह नहीं कर सकता। सम्मानित राजनेतागण जब आप व्यवसाय कर सकते हैं, खेल संघों के अध्यक्ष हो सकते हैं, शिक्षण संस्थायें, पेट्रोल पम्प और गैस एजेंसी चला सकते हैं, शिक्षक रहते हुए भी चुनाव लड़ सकते हैं तो यह सब करने वाला कोई नागरिक राजनीति क्यों नहीं कर सकता।
अरे भाई सरकार! आप बस सरकारी लोकपाल बिल, सिविल सोसायटी लोकपाल बिल, कालाधन वापस सरकारी खजाने में लाने को लेकर एक ऐतिहासिक एवं अभूतपूर्व जनमत सर्वेक्षण (रेफरेंडम) करा लो आगामी जातिगण जनगणना के साथ-साथ बिना एक भी अतिरिक्त रूपया खर्च किए और कर दो सारे अनशन-फनशन एवं सिविल सोसायटी की छुट्टी। लेकिन सरकार तो डरपोक निकली। सरकार को लगा कि जैसे अरब में जनता, सरकार से सड़क पर आकर दो-दो हाथ बेखौफ होकर करती है। वही अगर रामलीला मैदान का जनसमूह अचानक अपनी संख्या को 5गुना बढ़ाकर प्रधानमंत्री कार्यालय या आवास या राष्ट्रपति भवन या संसद को चारो तरफ से घेर ले तो क्या होगा? सरकार को तो त्यागपत्र देना होगा।
लेकिन सारे राजनीतिक दलों को अपने समस्त आय-व्यय का लेखा-जोखा व्यावसायिक कम्पनियों की तरह अखबारों में प्रकाशित कराकर यह साबित करना होगा कि लोकतंत्र का श्वशन तंत्र ‘चुनाव’ ऑक्सीजन ही ग्रहण कर रहा है काला धन या घोटाला रूपी कार्बन डाई ऑक्साइड नहीं। लेकिन सच की राह पर चलने वाला पथिक तो चीख-चीख कर कहता है कि जांच करा लो, जांच कर लो। यहां तो सारे राजनीतिक दलों का आपस में व्यावसायिक कम्पनियों के ‘प्राइस वार’ न करने जैसा समझौता है कि कोई भी दल ‘पार्टी फंड’ की जांच करने या उस पर कानून बनाने की मांग या पहल नहीं करेगा।
सरकार सिविल सोसायटी को यह मैसेज दे रही है कि हमारे खिलाफ जो आन्दोलन करेगा उसकी फौरन जांच की जाएगी कि उसके पास सरकार के खिलाफ आन्दोलन करने की मेधा, प्रज्ञा, योग्यता, क्षमता, रणनीति की ईमानदारी कहां से आ गयी। जन्म, धर्म, व्यवसाय और नीयत तक की जांच की जाएगी।
राजनीतिक दल व हमारे सिस्टम के लोग ही यह मानते हैं कि भारतीय समाज या राष्ट्र में कोई भी व्यक्ति बमुश्किले ईमानदार होने पर जिंदा होगा, फिर यह दो व्यक्ति हमारे समाज में ईमानदार होने पर जीवित कैसे हैं? दूसरे शब्दों में कहे तो इन दोनों ईमानदार नेताओं के भ्रष्ट भारतीय समाज में जिंदा बचे रहना वाकई काबिलेतारिफ है। प्रणब मुखर्जी ने तो हद कर दी यह कह कर के, कि सामाजिक कार्यकर्ता लोकतंत्र को कमजोर रहे हैं। अरे भाई! नेताओं ने इसे कब लोहे की ईंटों जैसी मजबूत बुनियाद दी।
43 साल से लोकपाल विधेयक संसद में पारित न करा पाने से लोकतंत्र कमजोर ही हुआ है न कि मजबूत। भारत के सभी जिम्मेदार पदों पर काबिज लोगों, थोड़ा समय निकालकर सोचिए, यदि दोनों सामाजिक नेताओं ने शांतिपूर्वक चुनाव में खड़े सभी प्रत्याशियों को नकारकर वोट न देने का आन्दोलन किया तो लोकतंत्र के मिमियाने की भी स्थिति नहीं रहेगी। भारतीय लोकतंत्र को संजीवनी प्रदान करने के लिए एक ऐसे आन्दोलन की शीघ्र आवश्यकता है।