ज्ञान महाशक्ति कब बनेगा भारत?
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शल इंफ्रास्ट्रक्चर का सबसे
महत्वपूर्ण अंग शिक्षा है। भारत में शिक्षा
विदेशों से बहुत बेहतर स्थिति में
नालंदा विश्वविद्यालय के जीवित रहने तक थी। भारत आर्थिक महाशक्ति बन चुका है।
सैन्य महाशक्ति बनने की ओर तेजी से अग्रसर है, लेकिन भारत ज्ञान महाशक्ति कब बनेगा? इसे केंद्र सरकार नहीं बता पा रही है।
बिना शिक्षा, नवीकरण, शोध और विकास के भारत कब तक और कैसे
आर्थिक एवं सैन्य महाशक्ति बना रहेगा? यह आसानी से समझा जा सकता है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास
मंत्री कपिल सिब्बल की योजना भारत में 2017 तक 200 नए विश्वविद्यालय स्थापित करने की है। वे
चाहते हैं कि देश में हाईस्कूल से विश्वविद्यालय जाने वाले छात्रों के मौजूदा प्रतिशत 15 को इससे बढ़ाकर 30 फीसदी पर पहुंचाया जाए। इसके लिए वृहद पैमाने पर भारत में
शैक्षिक अधोसंरचना की आवश्यकता होगी। इसके लिए बड़ी धनराशि की भी आवश्यकता होगी।
यूनेस्को सांख्यिकी संस्थान द्वारा
प्रकाशित वैश्विक शिक्षा डाइजेस्ट के अनुसार वर्ष 2010-11 में उच्च शिक्षा में छात्रों का सकल दाखिला अनुपात चीन में
26, श्रीलंका में 15, थाईलैंड में 48 और मलेशिया में 40 प्रतिशत था। जीडीपी के आधार पर शिक्षा क्षेत्र में किया गया
व्यय 2008-09 में मलेशिया एवं श्रीलंका में क्रमश: 5.8 एवं 2.1 प्रतिशत और थाईलैंड में 2009-10 में 3.8 प्रतिशत, था। इस डाइजेस्ट में चीन
द्वारा शिक्षा पर किये गये व्यय का आंकड़ा नहीं दिया गया था।
वित्तीय वर्ष 2012-2013 में
बजट आकलन (आर्थिक समीक्षा) के अनुसार जीडीपी का 3.31 प्रतिशत, शिक्षा पर व्यय किया गया। 23
जनवरी 2003 को योजना आयोग द्वारा घोषित ‘इंडिया विजन-2020’ में शिक्षा पर खर्च को 2000 में जीडीपी के 3.2
प्रतिशत से बढ़ाकर 2020 में 4.9 प्रतिशत करने का लक्ष्य घोषित किया गया है, लेकिन
इसे इस रफ्तार से पाना मुश्किल होगा। शिक्षा पर विशेष ध्यान देने व जीडीपी व्यय के
मामले में भारत थाईलैंड और मलेशिया जैसे छोटे देशों से भी पीछे हैं। लेकिन इसके
लिए 2012-2013
के वित्तीय वर्ष में उच्चतर
शिक्षा के लिए बजट को 15,438 करोड़ से बढ़ाकर आर्थिक साल 2013-2014 में 16198 करोड़ कर दिया गया। इस वित्तीय वर्ष में
मात्र 760 करोड़ की वृद्धि की गई।
यूपीए सरकार 3 साल की कोशिशों के बाद भी
विदेशी शिक्षण संस्थानों को देश में लाने से जुड़ा विधेयक संसद से पारित नहीं करा
सकी। अलबत्ता, उसने कंपनी कानून के तहत देश में विदेशी
कॉलेजों के कैंपस खोलने की कवायद तेज कर दी है। इसके लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय
व यूजीसी (विदेशी शिक्षण संस्थान कैंपस स्थापना व संचालन) नियमों को अंतिम रूप दे
रहे हैं।
इसके जरिए विदेशी उच्च
शिक्षण संस्थान भारत में कंपनी अधिनियम की धारा-25 के तहत अपना कैंपस खोल सकेंगे। इसके लिए
उन्हें कुछ जरूरी शर्तें पूरी करनी पड़ेंगी। ऐसे विदेशी संस्थानों को दुनिया के
शीर्ष 400 विश्वविद्यालयों में
शामिल होना जरूरी होगा। अपने देश में सरकारी मान्यता या वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य
किसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसी से मान्यता के साथ कम से कम 20 साल से चलते रहने वाला संस्थान होना चाहिए।
अपने कैंपस के जरिए विदेशी
शिक्षण प्रदाता को कम से कम 25 करोड़ रुपये का एक फंड स्थापित करना होगा। यूजीसी के इन नियमों में किसी
का भी उल्लंघन करने पर 50 लाख से 1 करोड़ रुपये तक का जुर्माने के साथ ही संस्थान के
कार्पस फंड को जब्त किया जाएगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के इस प्रस्ताव पर
वाणिज्य व वित्त मंत्रालय ने सहमति जता दी है।
भारत में शिक्षा को बेहतर करने
के लिए गैर व्यावसायिक शिक्षा देने वाले विश्विद्यालयों की जगह देश के हर एक अंचल
के बड़े शहर में 1 इंजिनियरिंग विश्वविद्यालय और 1 प्रबंधन विश्वविद्यालय की
स्थापना करनी चाहिए। ये सभी विश्वविद्यालय केंद्रीय हों, टॉप-4 जेएनयू, बीएचयू, एएमयू और उस्मानिया जैसी फंडिंग और
सुविधाएं हों। तत्पश्चात इन गुणीय-स्तरीय केंद्रीय विश्वविद्यालयों का
विकेंद्रीकरण देश के सुदूर पिछड़े संभागों तक करना होगा।
भारत
के अधिकतर विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा केवल परंपरागत विषयों में ही दी जाती
है, जो कम रोजगार वाले विषय होते हैं। उच्च
रोजगार प्रदान करने वाली व्यावसायिक शिक्षा भारत के बहुत कम विश्वविद्यालयों में
बहुत कम मात्रा में है। अर्थव्यवस्था को बेहतर मानव संसाधन उपलब्ध कराने के लिए
व्यावसायिक विषयों में उच्च शिक्षा प्राप्त प्रतिभाओं की सख्त जरूरत है। केवल
अच्छे शैक्षिक रिकॉर्ड वाले विद्यार्थियों को ही गैर व्यावसायिक,
परंपरागत विषयों में प्रवेश देने का सख्त नियम बनाया जाना चाहिए। इससे
अर्थव्यवस्था में युवाओं के शिक्षित बेरोजगार बनने की समस्या समाप्त होगी।
शिक्षा में व्याप्त समस्या
की जड़ यह है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा को कॉन्ट्रैक्ट या संविदा पर रखे गए शिक्षा
मित्रों के भरोसे गुणवत्तापूर्ण बनाना चाहती है। जिन्हें सरकार अपने चतुर्थ श्रेणी
कर्मचारियों से भी कम वेतन देती है। सरकार 5 हजार में अनुबंध पर शिक्षक रखकर
प्राइवेट सेक्टर से कहती है कि देखो तुमसे कम में तो हम शिक्षक (श्रमिक से कम मजदूरी पर) रख रहे हैं। संविदा
शिक्षकों से शिक्षित विद्यार्थी की नींव कितनी मजबूत होगी, इसका सहजता से अंदाजा
लगाया जा सकता है। ऐसे विद्यार्थी मिशनरी और कॉन्वेंट शिक्षित विद्यार्थियों के
सामने कैसे टिक पाएगा? यह तो लोकतंत्र, सामाजिक
समानता, शिक्षा का अधिकार आरटीई, मानवाधिकार, गरिमा से जीवन जीने का मजाक उड़ाना
है। अनुबंध शिक्षकों से सरकारी विद्यालयों में पढ़ें विद्यार्थी राष्ट्र-समाज में
मिड-डे-मील की गुणवत्ता ही फैलायेंगे।
दूसरी तरफ दिग्गज उद्योगपतियों के निजी
विश्वविद्यालयों का अधोसंरचना में कोई जवाब नहीं है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल
साइंसेज टिस्क किसी रैंकिंग में आने का कभी मोहताज नहीं रहा। उसकी गुणवत्ता
अक्षुण्ण रही है। इसके अलावा बेंगलुरु में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा में शिव नाडर विश्वविद्यालय और सोनीपत में ओ.पी.
जिंदल विश्वविद्यालय, पिलानी स्थित
बिऱला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ऐंड साइंसेज अपनी गुणवत्ता बनाए
हुए हैं। देश में दिग्गज उद्योगपतियों की ओर से उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों को धन उपलब्ध कराने की परंपरा रही है।
देश
में प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में एक ही पाठ्यक्रम वाली समान शिक्षा
प्रणाली को तत्काल प्रभाव से लागू कर देना चाहिए। शिक्षा का पाठ्यक्रम व्यवसायी तय
करें, तो वे क्या तय करेंगे? देश में मिशनरी, सरस्वती शिशु मंदिर, मदरसे, कॉन्वेंट जैसे अनेकों
पाठ्यक्रम चलते हैं।
भारत
में एक आतंकी हमला जीडीपी विकास दर को 0.57
प्रतिशत तक घटा देता है। उसके बाद भी जुर्म साबित हुए आतंकियों के मुकदमों, सजाओं
और फांसियों के फैसले वोटबैंक के आधार पर लिए जाते हों, वहां
अर्थव्यवस्था राजनीति की प्राथमिकता तो कतई नहीं है। प्राथमिकता है कि सोशल
इंफ्रास्ट्रक्टर या शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय तथा विकास के आधार पर कभी चुनाव न
हों, इस पर सभी पार्टियों में एक
अलिखित-अघोषित समझौता है। बिल्कुल शीतल-पेय
कंपनियों के मूल्य-युध्द न करके आपस
में विज्ञापन-युध्द के आधार पर मार्केट शेयर
के लिए लड़ने जैसा।
देश की राष्ट्रीय पंचायत
संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक की सभी संस्थाओं का अब तक लोकतंत्रीकरण नहीं हो पाया
है, लेकिन आजादी के बाद से ही
इन सभी संस्थाओं के राजनीतिकरण, भ्रष्टाचारीकरण और दलालीकरण करने के प्रयत्न अनवरत जारी हैं, और ऐसा करने वाले लोग अपने उद्देश्यों
में दिन प्रतिदिन सफल भी होते जा रहे हैं। योजना आयोग के सदस्य जयदेव शेट्टी ने 1981-1982 में कहा था कि भारत में लगभग 20 लाख बिचौलिए ऐसे हैं, जिनका उत्पादन में एक पैसे का भी योगदान
नहीं है, पर वे दलाली करके पांच
सितारा होटल का जीवन जी रहे हैं। अब 40 साल बाद तो दलालों की संख्या लाखों से
करोड़ों में पहुंच गयी है।
फ्रांस की क्रांति के नेता दांते का
ऐतिहासिक मत था कि, “रोटी के बाद
शिक्षा जीवन में सबसे मूल्यवान है”।
हमारे देश का लोकतंत्र रोटी और शिक्षा की जगह ‘दलाल’
दे रहा है, इससे हालात ऐसे हो गए हैं कि
बिना दलाल को ‘नगद-में-सलाम’
किए कोई भी सरकारी काम समय पर नहीं होगा। देश
का राजनीतिक तंत्र लीडर की जगह डीलर और डीलर से भी अधिक ब्रोकर या दलाल पैदा कर
रहा है। इन्हीं देशद्रोही दलालों के दम पर लगभग 20 हजार
अंग्रेजों ने 20 करोड़ भारतीयों पर बिना कोई बड़ी लड़ाई लड़े,
कानून के शासन (लॉ-फूल गवर्नमेंट) के नाम पर ‘लूट का राज’ कायम कर देश को जमकर लूटा। अंग्रेजों ने करीब 200 सालों
तक राज करके देश का करीब 1 लाख करोड़ (उस समय इतने धन की क्रयशक्ति आज के बनिस्बत लगभग
कई 100 गुनी होगी।) रुपया लूटा। केवल भारतीयों के चरित्र को और
कमजोर करके तथा जयचंदों-मीरजाफरों को पाल-पोस करके अंग्रेजों ने ऐसा आसानी से कर
लिया। आज की शिक्षा और आज का लोकतंत्र, शिक्षित जयचंद-मीरजाफर पैदा करने की
फैक्ट्री भर बन कर रह गया है।
(लेखक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय विषयों पर लिखते हैं)