सुप्रीम
कोर्ट ने समलैंगिक रिश्तों को अपराध माना
नई दिल्ली। पिछले चार साल से भारत में अपनी मर्जी से समलैंगिक संबंध बनाना अपराध
नहीं था, लेकिन आज के बाद ऐसा नहीं होगा। अगर कोई समलैंगिक संबंध बनाता पकड़ा जाता
है तो उसे उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के
फैसले को पलटते हुए समलैंगिक संबंधों को अपराध माना है।
जुलाई में दिल्ली हाई कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 में समलैंगिक संबंधों को अपराध
की कैटिगरी से बाहर कर दिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को पलट दिया।
विभिन्न धार्मिक संगठनों ने समलैंगिक संबंध को देश के सांस्कृतिक और धार्मिक
मूल्यों के खिलाफ बताते हुए हाई कोर्ट के फैसले का विरोध किया था और वे इसके खिलाफ
सुप्रीम कोर्ट चले गए थे।
लेज़बियन, गे, बाइ-सेक्शुअल और ट्रांस जेंडर कम्युनिटी के लोगों के लिए यह बहुत
बड़ा झटका माना जा रहा है। समलैंगिक अधिकारों के लिए काम कर रहे गैर सरकारी संगठन
नाज फाउंडेशन ने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट से फैसले की समीक्षा की मांग करेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद तक की सजा
वाला अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 में कोई संवैधानिक खामी नहीं है। कोर्ट
ने हालांकि यह कहते हुए विवादास्पद मुद्दे पर किसी फैसले के लिए गेंद संसद के पाले
में डाल दी कि मुद्दे पर चर्चा और निर्णय करना विधायिका पर निर्भर करता है। कोर्ट
ने कहा कि आईपीसी से धारा 377 हटाई जाए या नहीं यह देखने का काम विधायिका का है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ ही समलैंगिक संबंधों के खिलाफ दंड प्रावधान प्रभाव
में आ गया है। जैसे ही फैसले की घोषणा हुई, अदालत में पहुंचे समलैंगिक कार्यकर्ता
निराश नजर आए। बेंच ने कहा कि आईपीसी की धारा 377 को हटाने के लिए संसद अधिकृत है,
लेकिन जब तक यह प्रावधान मौजूद है, तब तक कोर्ट इस तरह के यौन संबंधों को वैध नहीं
ठहरा सकता।
गौरतलब है कि जस्टिस जीएस सिंघवी और एस जे मुखोपाध्याय की बेंच ने पिछले साल 27 मार्च
को इस मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था। उन्होंने जस्टिस मुखोपाध्याय के साथ
इस केस पर सुनवाई की थी। जस्टिस सिंघवी बुधवार को इस फैसले के साथ ही रिटायर हो
गए। इसलिए फैसला सुनाते वक्त वह चीफ जस्टिस पी. सदाशिवम और जस्टिस राजन गोगोई के
साथ बैठे। यह परंपरा है कि सुप्रीम कोर्ट में प्रत्येक जज अपने कार्यकाल के आखिरी
दिन चीफ जस्टिस के साथ बैठता है।
2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को आपराधिक दायरे से बाहर रखने का
ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 15 फरवरी, 2012 से
नियमित सुनवाई की थी और पिछले साल 27 मार्च को फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस
मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से मुक्त करने
के मसले पर ढुलमुल रवैया अपनाने के लिये केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना की थी। न्यायालय
ने इस मसले पर संसद में भी चर्चा नहीं होने पर भी चिंता जताई थी। समलैंगिकता को
अपराध के दायरे से मुक्त करने के लिये दलील देने वाली केंद्र सरकार ने बाद में कहा
था कि देश में समलैंगिकता विरोधी कानून ब्रिटिश उपनिवेशवाद का नतीजा है और
समलैंगिकता के प्रति भारतीय समाज में अधिक खुलापन है।
दिल्ली हाई कोर्ट ने 2 जुलाई 2009 को आईपीसी की धारा 377 में समलैंगिक यौन संबंधों
को अपराध के दायरे से मुक्त करते हुये कहा था कि एकांत में दो व्यस्कों के बीच
सहमति से स्थापित यौन संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं आएंगे। धारा 377 (अप्राकृतिक
अपराध) के तहत समलैंगिक यौन संबंध दंडनीय अपराध हैं जिसके लिये उम्र कैद तक की सजा
हो सकती है।
बीजेपी के वरिष्ठ नेता बीपी सिंघल ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते
हुये कहा था कि इस तरह का कृत्य गैरकानूनी, अनैतिक और भारतीय संस्कृति के लोकाचार
के खिलाफ है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, उत्कल क्रिश्चन काउन्सिल और
अपॉस्टलिक चर्चेज अलायन्स ने भी इस फैसले को चुनौती दी थी। दिल्ली बाल अधिकार
संरक्षण आयोग, तमिलनाडु मुस्लिम मुन्नन कषगम, ज्योतिषी सुरेश कौशल और योग गुरु
रामदेव के अनुयायी ने भी इस फैसले का विरोध किया था।
साभार नवभारत टाइम्स