श्राद्ध का अर्थ होता है, श्रद्धा से जो कुछ दिया जाय। किन्तु आज-कल श्राद्ध का अर्थ है पितरों के उद्देश्य से पिण्डदानादि की क्रिया। अपने भारतीय पंचांग के आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिप्रदा से अमावस्या तक के दिनों को ‘पितृपक्ष या महालय पक्ष’ कहते हैं। इस समय में अपने पूर्वजों-पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध किया जाता है। अब भारतीय प्रगतिशील बनने के लिए धर्म से निरपेक्ष होते जा रहे हैं, इसलिए वें इसे व्यर्थ का कार्य समझ कर नहीं करते हैं। लेकिन धर्म को जानने वाले भारतीयों को पता है कि श्राद्ध से पूर्वजों-पितरों व सगे-संबंधियों को ही नहीं वरन् प्राणि मात्र को संतृप्ति की प्राप्ति होती है।
मनुष्य जन्म का ऋण उतारने के लिए भी श्राद्ध किया जाना आवश्यक है। कहा जाता है कि पितृ पक्ष में हमारे पूर्वज-पितर अपने पुत्रों प्रपौत्रों से पिण्ड-दान तथा तिलांजलि पाने की आशा में पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं, तथापि पिण्ड-दान, तिलांजलि नहीं मिलने पर अपने ही वंशजों को दुःखित होकर श्राप दे देते हैं। अतः आत्म कल्याण के साथ-साथ जगत के कल्याण के लिए कुछ समय निकालकर श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में मनुष्य के लिए तीन ऋणों का मोचन करना अपरिहार्य माना गया है – देव ऋण, ऋषि ऋण एवं पितृ ऋण। तीनों ऋणों में पिता के ऋण को न चुकाना परम कृतघ्नता है। पूर्वजों-पितरों का ऋण श्राद्धों के द्वारा उतारा जा सकता है। वर्ष के किसी भी माह की जिस भी तिथि को अपने पितरों की मृत्यु हुई रहती है, पितृ पक्ष में उनके लिए उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पितरों की मृत्यु तिथि के दिन यथाशक्ति दूध, पुष्प, तिल, अक्षत, जल, कुश आदि से श्राद्ध करना चाहिए।
पितृ पक्ष में श्राद्ध और तर्पण दोनों का महत्व है। केवल अंतर यह है कि श्राद्ध तो मुख्य तिथियों को ही होते हैं, किन्तु तर्पण पूरे पक्ष में प्रतिदिन किया जा सकता है। तर्पण का जल पहले देवताओं को देने का नियम निश्चित है, इसके पश्चात अपने पितरों को तर्पण-जल देना चाहिए। यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्य तिथि है तथापि आश्विन अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी है। माताओं के लिए पितृपक्ष की नवमी तिथि के श्राद्ध को सबसे अधिक पुण्य प्रदायक माना गया है। मध्याह्न काल (कुटप बेला) श्राद्ध करने का सबसे उचित समय होता है।
पितरों के लिए गया में श्राद्ध करने के उपरांत अन्यत्र श्राद्ध करने की जरुरत नहीं होती। माताओं का श्राद्ध करने के लिए काठियावाड़ के सिद्धपुर स्थान को असीम पुण्य प्रदायक माना गया है। गया में श्राद्ध करके पितृ-ऋण से एवं सिद्धपुर में श्राद्ध करके मातृ-ऋण से पुत्र सदा सर्वदा के लिए उऋण हो जाते हैं।
श्राद्ध की अपनी उदात्त सांस्कृतिक परम्परा को बचाने के लिए हर व्यक्ति को अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या वह जीवन में कभी वृद्धाश्रम में रहना पसंद करेगा, एक दिन सभी को बूढ़ा तो होना ही है। निश्चित रुप से सभी एक-स्वर में कहेंगे, नहीं। जीवित बुजुर्गों के सम्मान की बात बाद में, अपनी संस्कृति में तो मृत बुजुर्गों को तर्पण, पिण्ड-दान देने वाले देश की संस्कृति का क्या इतना पतन हो गया है कि अब यहां वृद्धाश्रम खुल रहे हैं। इसको हर नर-नारी को रोकना चाहिए, क्योंकि स्मरण रहे जो वृद्धाश्रम को किसी स्तर पर बढ़ावा देगा उसे खुद भी एक दिन वहां जाकर रहना पड़ सकता है।
वृद्धाश्रम का आगमन लुटेरी पाश्चात्य संस्कृति से वैलेन्टाइन डे, फॉदर्स डे, मदर्स डे की तरह शनैः-शनैः हो रहा है, जो भारतीय संस्कृति की रीढ़ संयुक्त परिवार से माता-पिता तक को वृद्धाश्रम भेजना चाहते हैं, शेष रिश्तों को तो लुटेरी विदेशी संस्कृति पहले ही भारतीय संयुक्त परिवारों से निकाल चुकी है। बिगड़ैल से बिगड़ैल युवा अपने पिता की बात एकदम नहीं मानेगा, तो अपने दादा (बाबा) की एकदम नहीं टालेगा। भारतीय संस्कृति के सिरमौर-रक्षक, इन बुजुर्गों को घर से बाहर भेजकर ही ‘लुटेरी पाश्चात्य विदेशी संस्कृति’ भारत में पुष्पित-पल्लवित हो सकती है।
अमेरिका, ब्रिटेन जैसे पाश्चात्य देशों की कामचोर-लुटेरी संस्कृति में ही वृद्धाश्रम शोभा देते हैं। दरअसल ब्रिटेन में हाल में हुए दंगों से विशेषज्ञों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आम ब्रिटेनवासी मेहनत के काम नहीं करना चाहते, ब्रिटेन में अधिकांश मेहनत वाले काम भारत, पाक, श्रीलंका या अन्य एशियाई देशों के लोग ही करते हुए पाए जाते हैं। इसका कारण यह है कि आम ब्रिटेनवासी ऐसे काम करना ही नहीं चाहते।
जिस तरह से ब्रिटेन के युवा ऐश्वर्य के सामानों की दंगों के दौरान लूट कर रहे थे, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि इस देश के लोग जिस साम्राज्यवादी लूट के धन से अब तक ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे, वह धन अब समाप्त हो गया है। ऐसी लुटेरी संस्कृति के आभूषण वृद्धाश्रम हो सकते हैं, हमारे नहीं। क्योंकि हमारी संस्कृति में लूटेरों का कोई स्थान नहीं है। हमारी संस्कृति तो ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ’ अर्थात् त्यागपूर्वक उपभोग करने की है। लूट करके संचय करना, उपभोग करना पाश्चात्य संस्कृति है। हमारी संस्कृति में तो कहा भी जाता है कि
सांईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाए।
मैं भी भूखा ना रहूं, साधू ना भूखा जाए।।
ऐसी ही निकृष्ट संस्कृति से ‘फॉदर्स डे’, ‘मदर्स डे’ हमारी संस्कृति में मल्टीनेशनल कंम्पनियों के कंधे पर सवार होकर घुसपैठ कर रहे हैं। जबकि हमारी संस्कृति में तो निम्न उद्धरण उच्चारित किए जाते हैं –
प्रात काल उठि के रघुनाथा।
मात-पिता गुरू नाव ही माथा।।
प्रातः उठकर शैय्या पर ही ‘पृथ्वी मां’ से पैर रखने की क्षमा-प्रार्थना के साथ ही माता पिता के चरण छूकर आशीर्वाद लेने की स्तुत्य परंपरा है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय संस्कृति में ‘फॉदर्स डे’, ‘मदर्स डे’ के बगैर कोई डे ही नहीं है, अर्थात् प्रतिदिन ही ‘फॉदर्स डे’, ‘मदर्स डे’ है।
वैसे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भारतीय संस्कृति में ये तो हो ही नहीं सकता कि, पूरी वसुधा आए, और अपने माता-पिता ही न आए। हिन्दू धर्म में वर्णित है कि
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्ग कीर्ति पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।।
अर्थात् श्राद्ध करने वाले गृहस्थ को आयुष्य, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, बल, श्रेय, पशु-धन, साधन-धन तथा धान्यादि सहज प्राप्त होते हैं।
श्राद्ध नहीं करने वाले गृहस्थ को जो कुछ मिलता है, उसके बारे में यह उल्लेख है कि उस कुल में न तो वीर पुत्र पैदा होते हैं न नीरोगी पुत्र उत्पन्न होते हैं, जो पैदा भी होते हैं, वे शतायु नहीं होते हैं। साथ ही यह भी उल्लेख है कि ऐसे गृहस्थ का कुल कभी भी यश का भागी नहीं बनता।
न तत्र वीरा जायन्ते नीरोगो न शतायुषः।
न च श्रेयोअधिगच्छत्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्।।
अभी भी समय है। हम सभी भारतीय कमर कस लें तो हमारे देश में एक वृद्धाश्रम नहीं खुल सकते हैं। वृद्धाश्रम का खुलना हमारे देश की श्राद्ध, पिण्ड-दान, तर्पण व पितृ-पक्ष की संस्कृति के मरण को खुला आमंत्रण है। हम सभी को श्रद्धा व श्राद्ध की विश्वगुरू संस्कृति को अक्षुण्ण करने को सन्नद्ध हो जाना चाहिए।